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मेरे हरदम साथ रहो तुम, कितना अच्छा लगता है ! धुला - धुला - सा हो जाता मन फगुनाहट से भर जाता तन चौगुन चाव भरे बतियाते लगते हैं आपस में आंगन । तुलसी के चौरे पर दीप जलाना अच्छा लगता है हरदम मेरे साथ रहो तुम ! हर मौसम रंगों से भरता हर दर्पण का रूप निखरता छलक छलक पड़ता खालीपन कोना-कोना धूप संवरता हर अंदाज सही हो जाता
जीवन सच्चा लगता है
हरदम मेरे साथ रहो तुम !
मगर हरदम कौन किसके साथ रह सकता है ? और जीवन सच्चा लगता है ! सच्चा लगना एक बात; सच्चा हो जाना बिलकुल दूसरी बात । लगने में धोखा है। कितना तो तुमने धोखा खाया ! कितनी बार तो धोखा खाया ! कितनी बार तो तुमने कहा कि बस, अब आ गए। अब मिल गया मन का मीत! अब मिल गया, जिसे चाहा था । फिर चूके। फिर दो दिन बाद पता चला कि नहीं, यह भी पड़ाव है, मंजिल नहीं। बढ़ना होगा। आगे जाना होगा। धर्मशाला थी, सराय थी । रुक लिए रात; सुबह फिर बनजारा हो जाना है। सुबह फिर यात्रा पर निकल जाना है 1
धम्मपद का पुनर्जन्म
ऐसे जन्मों-जन्मों में कितने पड़ाव संसार में डाले; मंजिल कहां है ?
बुद्ध का यह कहना कि जीवन दुख ही दुख है, तुम्हें जगाने को है । और ऐसा समझना कि दुख का उपयोग नहीं है । यही उपयोग है। दुख से ही पार होकर निर्वाण है।
पांचवां प्रश्न ः
दिल को तुम से प्यार क्यूं यह न बता सकूंगा तुम को नजर में रख लिया
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