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धम्मपद का पुनर्जन्म भरे हैं। वे कहते हैं : तर्क करो ही मत। तर्क से वे घबड़ाते हैं। तर्क उनकी श्रद्धा को नष्ट कर देगा।
जो श्रद्धा तर्क से नष्ट हो जाती हो, दो कौड़ी की है। जो आस्तिकता नास्तिकता से डरती हो, भयभीत हो, उसका क्या मूल्य है? कोई मूल्य नहीं। ___ मैं तुम्हें एक ऐसी आस्तिकता दे रहा हूं, जो नास्तिकता से होकर गुजरती है; जो नास्तिकता के पार है; जो ईश्वर को मान नहीं लेती किसी भय के कारण। इसलिए नहीं मान लेती कि और लोग मानते हैं। मैं तुम्हें ऐसी आस्तिकता दे रहा हूं, जो नहीं कहने की क्षमता रखती है। और नहीं कह-कहकर ही हां तक पहुंचती है।
जो हां नहीं कह-कहकर पैदा होती है, उसमें प्राण होते हैं, बल होता है। जो नहीं कहना जानता ही नहीं, जिसे नहीं कहने का साहस नहीं, वह भी हां कहता है। उसकी हां नपुंसक होती है।
मैं इन धम्मपद के वचनों को तराश रहा हूं। तुम्हारे योग्य बना रहा हूं। ढाई हजार साल का खयाल तो करो। ढाई हजार साल में बहुत कुछ बदला है। जब बुद्ध बोले थे, तब फ्रायड नहीं हुआ था; मार्क्स नहीं हुआ था; आइंस्टीन नहीं हुआ था। अब फ्रायड हो चुका है, मार्क्स हो चुका है, आइंस्टीन हो चुका है। इनको कहीं इंतजाम देना पड़ेगा; इनको जगह देनी पड़ेगी; नहीं तो तुम बचकाने मालूम पड़ोगे।
अगर तुम्हारी कहानी वैसी की वैसी रहे, जैसी फ्रायड के पहले थी, तो फिर फ्रायड का क्या करोगे? फ्रायड ने जो अंतर्दृष्टि दी, उसे समाविष्ट कहां करोगे? और अगर समाविष्ट नहीं की तो तुम्हारी कहानी गलत हो जाएगी। क्योंकि फ्रायड ने जो अंतर्दृष्टि दी है, उसे समाविष्ट करना ही होगा। और मार्क्स ने जो भाव दिया है, उसे समाविष्ट करना ही होगा। आइंस्टीन ने जो नए द्वार खोले हैं, वे तुम्हारी कहानियों में भी खुलने चाहिए, नहीं तो तुम्हारी कहानियां पिछड़ जाएंगी। ____ मैं ढाई हजार साल में जो हआ है, उसे आंख से ओझल नहीं होने देता। मुझे बुद्ध की कहानी से अपूर्व प्रेम है। इसीलिए जो ढाई हजार साल में हुआ है, उसे मैं समाविष्ट करता हूं। जिस ढंग से मैं कह रहा हूं, उसमें मार्क्स भी भूल नहीं निकाल सकेगा; और फ्रायड भी नहीं निकाल सकेगा; और आइंस्टीन भी नहीं निकाल सकेगा। तो कहानी समसामयिक हो गयी। उसकी भाव-भंगिमा बदल गयी, उसका रूप बदल गया। उसने नयी देह ले ली। उसका पुनर्जन्म हुआ।
यह धम्मपद का पुनर्जन्म है। यह धम्मपद को नयी भाषा, नया अर्थ, नयी भंगिमा, नयी देह, नए प्राण देने का प्रयास है। और जब फिर से जन्म हो जाए धम्मपद का, जैसे बुद्ध आज बोल रहे हों, तभी तुम्हारी आत्मा में संवेग होगा; तभी तुम्हारी आत्मा में रोमांच होगा। तभी तुम आंदोलित होओगे। तभी तुम कंपोगे, डोलोगे।
इसलिए जब भी तुम्हें भेद दिखायी पड़े, तब शास्त्र में जल्दी से जाकर संशोधन कर लेना। उतना जोड़ देना या उतना घटा देना। और तुम कभी हानि में न रहोगे।
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