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मंजिल है स्वयं में
पहला प्रश्न:
भगवान बुद्ध कहते हैं कि संतों का धर्म कभी जराजीर्ण नहीं होता है। फिर कृष्ण, महावीर, स्वयं बुद्ध और जीसस के धर्म इतने जराजीर्ण कैसे हो चले? इस प्रसंग पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।
संतों का धर्म निश्चित ही कभी जराजीर्ण नहीं होता है। और जो जराजीर्ण हो जाता
है, वह संतों का धर्म नहीं है। ईसाइयत का कोई संबंध ईसा से नहीं है। और बौद्धों का कोई संबंध बुद्ध से नहीं है। जैनों को महावीर से क्या लेना-देना है?
जो महावीर ने कहा था, वह तो अब भी उतना ही उज्ज्वल है। लेकिन जो सुनने वालों ने सुना था, वह जराजीर्ण हो गया।
जो कहा जाता है, वही थोड़े ही सुना जाता है। जब बुद्ध बोलते हैं, तो बुद्ध तो अपनी ही भावदशा से बोलते हैं। तुम जब सुनते हो, अपनी भावदशा से सुनते हो। इन दोनों के बीच में बड़ा अंतर है। बुद्ध पर्वत के शिखर पर खड़े हैं; तुम अपनी अंधेरी खाइयों में पड़े हो। बुद्ध प्रकाश के उज्ज्वल शिखरों से बोल रहे हैं; तुम अपने
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