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एस धम्मो सनंतनो
सो वह भरी दुपहरी में भगवान के पास जा पहुंचा।
शायद थोड़ा भीतर अपराध-भाव भी हुआ होगा—कि सात दिन से नहीं गया है; भगवान पूछेगेः कहां रहे! शायद भीतर कुछ कलुष भी लगा होगा, कालिमा भी लगी होगी कि यह भी मैंने क्या किया! शायद उसी अपराध के कारण दोपहर में ही पहुंच गया। जाता सुबह था, वही मिलने का समय भी था। असमय पहुंच गया। भर दोपहर!
भगवान ने उससे दोपहर में आने का कारण पूछा। भगवान ने यह नहीं पूछा कि सात दिन क्यों नहीं आया!
नहीं; बुद्ध जैसे व्यक्ति तुम्हें पीड़ा देना ही नहीं चाहते, किसी तरह की पीड़ा नहीं देना चाहते। यह पूछना अशोभन होगा कि सात दिन क्यों नहीं आया! यह उसके घाव को छूना होगा। अब जो हुआ, हुआ।
बुद्ध जैसे व्यक्ति क्षमा करना जानते हैं। देख तो रहे हैं कि सात दिन से नहीं आया। पता भी चल चुका होगा; खबर भी आ गयी होगी कि श्रेष्ठी मर गया, उसका धन ढो रहा है कौशल नरेश। लेकिन यह नहीं पूछा कि सात दिन क्यों नहीं आए। पूछा यही: आज भर दुपहरी में कैसे चले आए!
बुद्ध जैसे व्यक्ति सदा विधायक को देखते हैं, नकारात्मक को नहीं। अंधेरे को छोड़ देते हैं, रोशनी को पकड़ते हैं। क्योंकि रोशनी में ही ले जाना है, तो रोशनी को ही पकड़ना उचित है।
राजा ने सब समाचार बताए और फिर पूछा : भंते! उस अपुत्रक श्रेष्ठी के पास इतना धन था, फिर भी वह रूखा-सूखा खाता था, फटा-पुराना पहनता था, टूटे हुए जराजीर्ण रथों पर चलता था। मामला क्या है ? इसका राज क्या है?
सुनकर भगवान ने कहाः महाराज! वह पूर्व काल में तगरशिखी बुद्ध को दान दिया था, जिसके फलस्वरूप इतनी धन-संपत्ति उसे मिली थी। दान तो बहुत छोटा था...।
बीज बड़ा छोटा होता है जैसे, और फिर विराट वृक्ष बन जाता है, ऐसा ही दान का बीज है। और ध्यान रखना ः ऐसा ही पाप का बीज भी है। तुम जो बोओगे, वही बड़ा होता चला जाता है। तो बोते समय खयाल रखना। कहीं जहर के बीज मत बो लेना। एक बार जो तुमने बो दिया है, उसकी फसल काटनी पड़ेगी। और जो बोया है, वही बड़ा होकर मिलेगा। __छोटा सा बीज तुम बोते हो, और बड़ा वृक्ष हो जाता है, जिसके नीचे सैकड़ों लोग बैठ सकें छाया में; कि अनेक बैलगाड़ियां विश्राम कर सकें; कि अनेक पक्षी बसेरा कर सकें। बड़ा हो जाता है वृक्ष। खूब फल लगते हैं, खूब फूल लगते हैं। एक बीज से फिर अनंत बीज लगते हैं। इसलिए सोच-समझकर बीज बोना।
दान तो उसने किसी बुद्धपुरुष को-तगरशिखी को-थोड़ा सा ही दिया था। ज्यादा देने की उसकी क्षमता भी नहीं थी। देने की क्षमता होती, तो फिर पछताता ही
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