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जीवन का परम सत्य : यहीं, अभी, इसी में वह हाथी ऐसे बाहर आ गया जैसे फंसा ही न हो, जैसे वहां कोई कीचड़ हो ही न, ऐसी सरलता और सहजता से।
ऐसी सरलता और सहजता से ही मिलती है समाधि। संसार से आदमी ऐसे ही निकल आता है। सिर्फ स्मरण आ जाए, आत्म-स्मरण आ जाए।
इसलिए मैं भी तुम्हें संसार छोड़ने को नहीं कहता, क्योंकि मैं कहता हूं, पकड़ ही नहीं सकते, पहली तो बात, छोड़ोगे कैसे? छोड़ना तो नंबर दो होगा, पहले तो पकड़ना होना चाहिए। इसलिए मैं तुमसे भागने को भी नहीं कहता। भागोगे कहां? जागने को कहता हूं। यह हाथी जाग गया। यह बैंड-बाजे की चुनौती इसे जगा गयी। बस जागो।
आकर किनारे पर ऐसा चिंघाड़ा जैसा वर्षों से लोगों ने उसकी चिंघाड़ न सुनी थी। वे पुराने युद्ध फिर जैसे जीवंत हो उठे।
चेतना तो कभी न बूढ़ी होती, न दुर्बल होती। चेतना तो न कभी जन्मती और न मरती। चेतना तो शाश्वत है। और चेतना तो सदा एक जैसी है। एकरस है।
वह हाथी बड़ा आत्मवान था। इतने जल्दी याद आ गयी। लोग भी इतने आत्मवान नहीं हैं। बड़ा संकल्पवान था। इतनी चुनौती में संकल्प जग गया! घोषणा हो गयी। बड़े जल्दी जागा। ___ भगवान के भिक्षुओं ने जब यह बात भगवान को कही, तो उन्होंने कहाः भिक्षुओ, उस अपूर्व हाथी से कुछ सीखो। उसने तो कीचड़ से अपना उद्धार कर लिया, तुम कब तक कीचड़ में पड़े रहोगे? और देखते नहीं कि मैं कब से संग्राम-भेरी बजा रहा हूं! भिक्षुओ, जागो, और जगाओ अपने संकल्प को। वह हाथी भी कर सका, क्या तुम न कर सकोगे? क्या तुम उस हाथी से भी गए-बीते हो? चुनौती तो लो उस हाथी से! कुछ तो शरमाओ, कुछ तो संकोच करो, कुछ तो लजाओ, तुम भी आत्मवान बनो! और एक क्षण में ही क्रांति घट सकती है। . एक क्षण में क्रांति घट सकती है, ऐसा महासूत्र बुद्ध ने दिया है। जन्म-जन्म का अंधेरा एक क्षण में कट सकता है। जिस घर में रात ही रात रही है जन्मों से, सदियों से जहां अंधेरा ही अंधेरा रहा है, एक दीया जले, छोटा सा दीया जले, अंधेरा कट जाता है। अंधेरा यह थोड़े ही कहता है कि मैं सदियों पुराना हूं, अभी नए-नए दीए से कैसे कहूंगा? अंधेरे की कोई उम्र थोड़े ही होती है। हजार साल पुराना अंधेरा हो कि एक रात पुराना अंधेरा हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, जब दीया जलता है तो दोनों मिट जाते हैं। अंधेरे की कोई शक्ति होती नहीं, अंधेरा नपुंसक है। संसार नपुंसक है।
जिस दिन आत्मा का दीया जलता है, कोई शक्ति नहीं रोकती। इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि क्रमिक-विकास होता है; क्रमिक होता है इसलिए कि तुम आत्मवान नहीं हो। तुम हिम्मत ही नहीं लेते, तो सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ो, इंच-इंच सरको। जिनमें हिम्मत है, वे छलांग लगा जाते हैं। एक क्षण में घट जाता है। अक्रमिक। एक
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