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अकेला होना नियति है
भगवान की आज्ञा ले आनंद उस युवक के पास गए और उसे सन्निकट मृत्यु से अवगत कराया। मृत्यु की बात सुनते ही वह थरथर कांपने लगा । खड़ा था, भयभीत होकर बैठ गया। अभी सुबह ही थी, शीतल हवा बहती थी, सब शांत था लेकिन उसके माथे पर पसीने की बूंदें झलक आयीं। भूल गया सुंदर स्त्रियों को, भूल गया संगमरमरी महल, भूल गया हेमंत, वसंत, भूल गया सब ।
मृत्यु सामने खड़ी हो, मृत्यु का एक दफे स्मरण भी आ जाए तो इस सारे जीवन से प्राण निकल जाते हैं, इस जीवन में कुछ अर्थ नहीं रह जाता है। इस जीवन में अर्थ तभी तक है, जब तक तुमने मृत्यु को नहीं देखा, जब तक तुमने मृत्यु का विचार नहीं किया, जब तक मृत्यु का बोध तुम्हें नहीं हुआ, तभी तक इस जीवन का खेल है। तभी तक इन सपनों को फुलाए जाओ, तैराए जाओ नावें कागज की, बनाए जाओ कागज के महल। लेकिन जैसे ही मृत्यु का स्मरण आ जाएगा, सब ढह जाता है।
बड़े उसके स्वप्न थे, अभी युवा था, बड़ी उसकी कामनाएं थीं, जीवेषणाएं थीं, बड़ा उसका संसार फैलाने का मन था, सब भूमिसात हो गया, सब खंडहर हो गया। जो भवन कभी बने ही नहीं, वे खंडहर हो गए। और जो सुंदर स्त्रियां उसे कभी मिली ही नहीं, वे तिरोहित हो गयीं। वे मन पर तैरते हुए इंद्रधनुष से ज्यादा न थे। मौत ने एक झपट्टा मारा और सब व्यर्थ हो गया।
वह युवक बैठकर रोने लगा। आनंद ने उसे कहा- -युवक, उठ, मौत पर बात समाप्त नहीं हो जाती, भगवान के चरणों में चल, मौत के पार भी कुछ है। जीवन मौत पर समाप्त नहीं होता। असली जीवन मौत के बाद ही शुरू होता है । और धन्यभागी हैं वे जिन्हें इस जीवन में ही मौत दिखायी पड़ जाए, तो वह दूसरा जीवन इसी क्षण शुरू हो जाता है। संन्यास का और कुछ अर्थ भी नहीं है । जीते-जी मौत की प्रतीति हो गयी, साक्षात हो गया। जीते-जी यह दिखायी पड़ गया कि मरना
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होगा कि मृत्यु आती है। क्या फर्क पड़ता है, सात दिन बाद आती है, कि सात वर्ष
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बाद आती है, कि सत्तर वर्ष बाद आती है । मृत्यु है, यह तीर चुभ जाए हृदय में तो संसार व्यर्थ हो जाता है और संन्यास सार्थक हो जाता है।
आनंद ने उसे सम्हाला और कहा- -हार मत, थक मत, मौत से कुछ भी मिटता नहीं। मौत से वही मिटता है जो झूठ था। मौत से वही मिटता है जो भ्रामक था। मौत से सिर्फ सपने मिटते हैं, सत्य नहीं मिटता। घबड़ा मत, उठ।
वह युवक भगवान के चरणों में आया।
मृत्यु सामने खड़ी हो तो बुद्ध के अतिरिक्त और कोई मार्ग भी तो नहीं । मृत्यु न होती तो शायद कोई बुद्धों के चरणों में जाता ही न । मृत्यु न होती तो मंदिर न होते, मस्जिद न होती, गुरुद्वारे न होते। मृत्यु न होती तो धर्म न होता । मृत्यु है तो धर्म का विचार उठता है। मृत्यु जगाती है, चेताती है, मृत्यु अलार्म का काम करती है, नहीं तो तुम्हारी मूर्च्छा बनी ही रहती ।
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