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पहला प्रश्न :
तृष्णा का स्वभाव अतृप्ति है
श्रेय और प्रेय के भेद को हमें फिर से समझाने की कृपा करें।
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से तो भेद साफ है । और साफ नहीं भी । क्योंकि भेद दो बड़ी सूक्ष्म बातों में है । जिसे श्रेय कहते हैं, अंतिम अर्थों में वही प्रेय सिद्ध होता है । और जिसे प्रेय कहते हैं, वह तो श्रेय है ही नहीं । इसलिए भेद सूक्ष्म भी है। लेकिन शब्द की तरफ से न पकड़ें, चैतन्य की तरफ से पकड़ें।
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मूच्छित आदमी जिसे करने योग्य मानता है, उसे बुद्ध ने प्रेय कहा है। सोया हुआ आदमी जिसे करने योग्य मानता है, उसे प्रेय कहा है। जागा हुआ आदमी जिसे करने योग्य मानता है, उसे श्रेय कहा है। असली सवाल निद्रा को जागरण में बदलने
है। तभी से मुक्ति और श्रेय में गति होगी ।
छोटा बच्चा है, वह तो आग से भी खेलना चाहे, वह तो सांप से भी खेलना चाहे, रोको तो रोए भी, रोको तो नाराज भी हो, उसे अभी श्रेय और प्रेय का कुछ भी पता नहीं। अभी तो इस अबोध अवस्था में जो उसे प्रिय लगता है, वह प्रिय भी कहां है! आग से खेलेगा तो जलेगा; सांप से खेलेगा तो मरेगा। यह प्रीतिकर भी नहीं है। लेकिन अबोध अवस्था में निर्णय भी कैसे करे ? जितना रोका जाता है, उतना
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