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जितनी कामना, उतनी मृत्यु
कामी अनंत बार मरता है। जितनी कामना, उतनी मृत्यु। प्रत्येक कामना एक जन्म है और प्रत्येक कामना एक मृत्यु है। और तब उन्होंने यह गाथा कही
जैसे लोहे पर मोर्चा लग जाता है, जंग लग जाती है, वह आती तो लोहे से ही है, लेकिन लोहे को ही सड़ा देती है, गला देती है, मिटा देती है। जैसे लोहे पर जंग आ जाती है, उसी से उत्पन्न होती और जंग फिर उसी लोहे को खा जाती है, ऐसे ही तुम्हारी वासनाएं तुम्हीं में उत्पन्न होतीं और तुम्हीं को खा जातीं। वासना तुम्हारी चेतना पर जंग है। वासना से जो मुक्त है, वह निर्मल है। उस पर कोई जंग नहीं। _ 'वैसे ही सदाचार का उल्लंघन करने वाले मनुष्य के अपने कर्म उसे दुर्गति को पहुंचाते।' ___ यह तिष्य की हालत देखो, बुद्ध ने कहा, अपनी ही भ्रांति, अपनी ही भूल, कैसी दुर्गति में ले गयी! कहां भिक्षु था, कहां चीलर हुआ! ___मनुष्य इन सारी यात्राओं पर होकर आया है। तुम कभी पशु थे, कभी पक्षी थे, कभी पौधे थे, कभी पहाड़ थे, अब तुम मनुष्य हो। इस मनुष्य होने के अपूर्व अवसर का ठीक-ठीक उपयोग कर लो। कहीं ऐसा न हो कि यह अवसर ऐसे ही खो जाए। इस अवसर का एक ही ठीक उपयोग है और वह है-इस बार इस भांति मरो कि फिर कोई जन्म न हो। उसने ही जीवन का सम्यक उपयोग कर लिया जो इस भांति मरा कि फिर कोई जन्म न हो।
लेकिन उसके लिए निर्वासना में मरना जरूरी है। शांत, मौन, शून्य भाव में मरना जरूरी है। तो फिर तुम्हारे भीतर कोई दिशा नहीं है जो तुम्हें कहीं ले जा सके। __ जब तुम्हारे भीतर कहीं जाने की कोई कामना नहीं, कुछ होने की कोई कामना नहीं, तब तुम इस पृथ्वी के प्रभाव से मुक्त हो जाते हो। तब तुम उठते हो आकाश की उस ऊंचाई पर, जहां बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति ही उठते हैं।
एक ऐसा जन्म है कि फिर कोई मृत्यु नहीं। वह जन्म है मोक्ष में। और फिर ऐसे अनंत जन्म हैं जिनमें बार-बार मृत्यु है, वैसे जन्म हैं संसार में। चुनाव तुम्हारा है।
सागर बूंदों का मेला
ईश्वर आदमी अकेला इस अकेलेपन को बुद्ध कहते हैं, द्वीप बन जाना।
सो करोहि दीपमत्तनो खिप्पम वायम पंडितो भव।
अकेले हो जाओ, असंग हो जाओ। ऐसे जीओ कि तुम अकेले हो, कोई संग-साथ नहीं, कोई संगी-साथी नहीं है, कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं, ऐसे द्वीप की भांति जीओ। और जिस दिन तुम द्वीप की भांति जीओगे, उसी दिन तुम्हारे भीतर वह दीया भी जलेगा जो पांडित्य का है।
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