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परमात्मा अपनी ओर आने का ही ढंग
पहला प्रश्न :
कल तक आप हमें परमात्मा की ओर जाने को कह रहे थे, आज हमें अपनी ही ओर जाने पर जोर दे रहे हैं। आपको तो दोनों ओर, दोनों अतियों में बहना सरल है, खेल है, पर हम कैसे इतनी सरलता से दोनों ओर बहें, आपके साथ-साथ बहें? कृपा कर समझाएं।
जीवन को अतियों में तोड़कर देखना ही गलत है। जीवन को दो में तोड़कर
- देखने में ही भ्रांति है। तुम अगर कभी एक को भी चुनते हो, तो दो के खिलाफ चुनते हो। तुम्हारे एक में भी दो का भाव बना ही रहता है। तुम एक किनारे को चुनते हो, तो दूसरे किनारे को छोड़कर चुनते हो। छोड़ने से दूसरा किनारा मिटता नहीं। तुम्हारे छोड़ने से दूसरे किनारे के मिटने का क्या संबंध है! ___ वस्तुतः तुम्हारे इस किनारे को पकड़ने में दूसरा किनारा बना ही रहता है। तुम उसके विपरीत ही इसे पकड़े हो। अगर दूसरा किनारा खो जाए, तो यह किनारा भी कैसे बचेगा? जाते हैं दोनों साथ जाते हैं, रहते हैं दोनों साथ रहते हैं।
अद्वैत, दो में से एक का चुन लेना नहीं है। अद्वैत, दो का ही चला जाना है।