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एस धम्मो सनंतनो
अलंकतो चेपि समं चरेय्य सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी । सव्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं सो ब्राह्मणो सो समणो स भिक्खु ।।
बुद्ध का यह वचन चौंकाएगा बौद्ध भिक्षुओं को भी । धम्मपद रोज पढ़ते हैं, लेकिन इसे शायद पढ़ते नहीं । अलंकृत रहते हुए भी ! ठीक संसार में रहते हुए भी! न धूल रमाने की जरूरत, न उकडूं बैठ जाने की जरूरत, न उपवास करने की जरूरत; असली जरूरत कुछ और है - वह है शांत होने की जरूरत, शमन करने की जरूरत; भीतर जो तूफान हैं, उन्हें विसर्जित करने की जरूरत; भीतर जो कामवासना का ज्वर है, ऊर्जा जो विक्षिप्त घूम रही है भीतर, उसे नियत, अनुशासित करने की जरूरत; उसी को वे ब्रह्मचर्य कहते हैं।
ब्रह्मचर्य का अर्थ यह नहीं है, कामवासना से लड़ना । ब्रह्मचर्य का अर्थ है, कामवासना को समझ लेना । शांति का अर्थ नहीं है, अशांति से लड़ना । शांति का अर्थ अशांति को समझ लेना । समझ शांत कर देती है ।
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'वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, वही भिक्षु है ।'
ब्राह्मण तो भारत की पुरानी संस्कृति है । श्रमण जैनों के लिए प्रयोग किया गया शब्द है । वह भारत की दूसरी बहुमूल्य संस्कृति की धारा है । और भिक्षु बुद्ध अपने संन्यासियों के लिए कह रहे हैं।
'लोक में कोई ही पुरुष होता है जो स्वयं लज्जा करके अकुशल को, वितर्क को नहीं करता । जिस तरह उत्तम घोड़ा कोड़े को नहीं सह सकता, उसी तरह वह निंदा को नहीं सह सकता है। कोड़े दिखाए गए उत्तम घोड़े की भांति उद्यमी, संवेगवान होओ ! श्रद्धाशील, वीर्य, समाधि, धर्मविनिश्चय, विद्या, आचार और स्मृति से संपन्न होकर इस महान दुख को पार कर सकोगे । '
लोक में कोई ही ऐसा विरला पुरुष है, बुद्ध कहते हैं, जो लज्जावान है। जो सोचता है और अपनी मूच्छित दशा पर लज्जित है। जो बूझता है और अपनी अवस्था को देखकर चकित होता है, हैरान होता है - यह मैं क्या कर रहा हूं! यह मुझसे क्या हो रहा है !
जो अपने प्रति थोड़ा भी जागने लगा, वह लज्जित होने लगेगा ! इस फर्क को समझना जरूरी है। तुम साधारणतः अपराध अनुभव करते हो, लज्जा नहीं । लज्जा बड़ी अलग बात है, अपराध बड़ी अलग बात है।
अपराध का मतलब होता है, तुम डरे हो कि कहीं पकड़े न जाओ। अपराध का मतलब होता है कि करना तो तुम यही चाहते थे, लेकिन परमात्मा, राज्य, कानून, समाज, धर्म इसके विपरीत हैं । अपराध का मतलब होता है कि अगर तुम्हें पूरी
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