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अशांति की समझ ही शांति
आंधियां चाहे उठाओ बिजलियां चाहे गिराओ जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा उग रही लौ को न टोको ज्योति के रथ को न रोको यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है
आंधियां चाहे उठाओ बिजलियां चाहे गिराओ जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा
पर जल गया हो तब! अंधेरे में इस गीत को दोहराने से कुछ भी न होगा । बहुत लोग गीतों को दोहराने लगे हैं। धम्मपद पढ़ रहा है कोई। गीता दोहरा रहा है कोई । कुरान को गा रहा है कोई । दीया जलाओ ! ये दीया जलाने के शास्त्र हैं, इनको दोहराओ मत, इनका उपयोग करो! इनसे कुछ सीखो और जीवन में रूपांतरित करो।
बोझ की तरह मत ढोओ।
और ये सब चोटें जो जीवन में पड़ती हैं, शुभ हैं। न पड़ें तो तुम जागोगे कैसे? क्रोध भी, काम भी, लोभ भी । एक दिन तुम उनके प्रति भी धन्यवाद करोगे। अगर न कर सको तो तुम असली धार्मिक आदमी नहीं ।
इसलिए तुम उसी को संत समझना, उसी को सिद्ध समझना, जिसने अब अपने जीवन की उलझनों को भी धन्यवाद देने की शुरुआत कर दी। अगर तुम्हारा संत अभी भी क्रोध के विपरीत आग उगलता हो, अभी भी कामवासना के ऊपर तलवार लेकर टूट पड़ता हो, अभी भी पापियों को नर्क में भेजने का आग्रह रखता हो, उत्सुकता रखता हो, और अभी भी पुण्यात्माओं के लिए स्वर्ग के प्रलोभन देता हो, तो उसने कुछ जाना नहीं। वह तुम जैसा ही है। उसने नए धोखे रच लिए होंगे। तुम्हारे धोखे अलग, उसके धोखे अलग। तुम्हारी माया एक ढंग की है, सांसारिक है; उसकी माया मंदिर-मस्जिद वाली है, लेकिन कुछ फर्क नहीं है ।
चोट खाकर ही तो इंसान बना करता है।
दिल था बेकार अगर दर्द न पैदा होता
सब चोटें अंततः निर्मात्री हैं। सब चोटें सृजनात्मक हैं। सभी से तुम बनोगे, निखरोगे, खिलोगे । उठना है उनके पार, दुश्मन की तरह नहीं; उनका भी मित्र की तरह उपयोग कर लेना है।
'जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए हैं, उस मनुष्य की शुद्धि न नंगे रहने से, न जटा धारण करने से, न पंकलेप से, न उपवास करने से, न कड़ी भूमि पर सोने से, न
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