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झुकने से उपलब्धि, झुकने में उपलब्धि
सुख भी सीखना पड़ता है। सुख का स्वाद भी सीखना पड़ता है। और अगर तुम स्वाद को न जानो, तो सुख पड़ा रहेगा तुम्हारी थाली में, तुम उसे चख न सकोगे, तुम उसे अपना खून-मांस-मज्जा न बना सकोगे, वह तुम्हारी रक्त की धार में न बह सकेगा, वह तुम्हारे जीवन की रसधार न बनेगी।
और दुख भी तुम्हारा जीवन का ढंग है। तुम्हारे हाथ में जो पड़ जाता है, तुम दुख में बदल देते हो।
जो देखते हैं दूर और गहरा, उनसे अगर पूछो, जागे हुओं से पूछो, तो वे कहेंगे, सुख और दुख होते ही नहीं। तुम्ही हो। वही घटना सुख बन जाती है किसी के हाथ में, वही घटना दुख बन जाती है। कोई उसी घटना को दुर्भाग्य बना लेता है, कोई उसी को सौभाग्य बना लेता है। सारी बात तुम पर निर्भर है। तुम आत्यंतिक निर्णायक हो। परमात्मा भी तुम्हें स्वर्ग नहीं भेज सकता, नर्क नहीं भेज सकता। तुम जहां होना चाहते हो, वहीं हो और वहीं रहोगे। तुम्हारी स्वतंत्रता अंतिम है। तुम अपने मालिक हो।।
बुद्ध का इस बात पर गहनतम जोर है कि तुम अपने मालिक हो, कोई और मालिक नहीं। इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की। उन्होंने कहा, बात ही क्या उठानी! आदमी आत्यंतिक रूप से जब खुद ही निर्णायक है, तो परमात्मा को छोड़ ही दो। परमात्मा को बीच में लाने से भ्रम बढ़ सकता है। भ्रम इस बात का कि चलो मैं गलती करूंगा, तो वह क्षमा कर देगा; कि चलो मैं भूल-चूक करूंगा, तो वह राह पर लगा देगा। इससे भूल-चूक करने में सुविधा मिल सकती है। परमात्मा की आड़ में कहीं ऐसा न हो कि तुम अपने को बदलने के उपाय छोड़ दो।
तो बुद्ध ने कोई आड़ ही न दी। बुद्ध ने कहा, कोई आड़ की जरूरत नहीं, क्योंकि अंततः तो परमात्मा भी तुम्हारे विपरीत कुछ न कर सकेगा। हो, तो भी कुछ न कर सकेगा। और जब तुम्हीं करने वाले हो, तुम्हीं निर्णायक हो, तो यह परमात्मा शब्द कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी बेईमानियों को, तुम्हारी धोखाधड़ियों को छिपाने का आधार बन जाए। इसे हटा ही दो। - इसलिए बुद्ध का सारा जोर तुम पर है, मनुष्य पर है। बुद्ध का धर्म मनुष्य केंद्रित-धर्म है, उसमें परमात्मा की कोई भी जगह नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि बुद्ध के धर्म में परमात्मा का आविर्भाव नहीं होता। होता है, लेकिन मनुष्य से होता है। परमात्मा कहीं दूर आकाश में बैठा हुआ किसी सिंहासन पर नहीं है। मनुष्य के हृदय से ही उठती है वह सुगंध। दूर आकाश को व्याप्त कर लेती है।
और धर्मों का परमात्मा अवतरित होता है— हिंदू कहते हैं, अवतार-बुद्ध का परमात्मा अवतरित नहीं होता, ऊपर से नीचे नहीं आता। ऊर्ध्वगमित होता है। नीचे से ऊपर जाता है। ज्योति की तरह है, वर्षा की तरह नहीं। वर्षा ऊपर से नीचे गिरती है। आग जलाओ, लपटें ऊपर की तरफ भागती हैं।
तो बुद्ध कहते हैं, जहां चैतन्य की ज्योति जलने लगी, वहां परमात्मा प्रगट होने