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________________ अंतश्चक्षु खोल पहला प्रश्न : मेरे व्यक्तित्व के दो हिस्से हैं; एक प्रतिदिन जमीन पर लेटकर आपको साष्टांग प्रणाम करता है और उससे सुखी होता है; और दूसरा प्रायः प्रतिदिन ही पूछ बैठता है कि तुम्हें क्या पता कि ये भगवान ही हैं! क्या दोनों मेरे अहंकार के हिस्से हैं और क्या श्रद्धा निर-अहंकार में ही जन्म लेती है? मन जहां तक है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा। मन बिना द्वंद्व के ठहर भी नहीं सकता; पलभर भी नहीं ठहर सकता। मन के होने का ढंग ही द्वंद्व है। वह उसके होने की बुनियादी शर्त है। अगर तुम्हारे मन में प्रेम होगा तो साथ ही साथ कदम मिलाती घृणा भी होगी। जिस दिन घृणा विदा हो जाएगी, उसी दिन प्रेम भी विदा हो जाएगा। __इसलिए तो बुद्ध पुरुषों का प्रेम बड़ा शीतल मालूम पड़ता है। वह उष्णता प्रेम की, जो हम सोचते हैं, दिखाई नहीं देती। वैसा प्रेम गया। वह ज्वार, वह ज्वर गया। इसलिए तो बुद्ध पुरुषों के प्रेम को हमने प्रेम भी नहीं कहा, करुणा कहा है, प्रार्थना कहा है। प्रेम कहना ठीक नहीं मालूम पड़ता। प्रेम का पैशन, त्वरा, तूफान, वहां कुछ 137
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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