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________________ बाल-लक्षण चैतन्य का ऊर्ध्वगमन है। सीढ़ियां चढ़ने से नहीं, आत्मा चढ़ने से। बाहर के सोपानों पर यात्रा करने से नहीं, भीतर के सोपानों पर यात्रा करने से। ____ एक तो गौरीशंकर बाहर है, उस पर तुम चढ़ जाना। तेनसिंह चढ़ा, और चढ़े लोग, हिलेरी चढ़ा। इससे कोई मनुष्यता की ऊंचाई थोड़े ही आ जाती है! एक गौरीशंकर भीतर है। उसको ही हम समाधि का शिखर कहते हैं। उसी को हमने कैलाश कहा है। उसी शिखर पर शिव का निवास है। उसी शिखर पर बुद्धों का वास है। ___ कहना चाहिए, तुम्हारी प्रबुद्धता में, तुम्हारे रोज-रोज जागने में एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम्हारे भीतर कोई भी सोया हुआ कण नहीं रह जाता। सब जाग गया होता है। सब रोशन! एक भी कोना तुम्हारे अंतर का अंधकार में भरा नहीं रह जाता, दबा नहीं रह जाता। भीतर बस रोशनी ही रोशनी हो जाती है। तुम नहाए हुए-भीतर की सूरज की रोशनी में! तुम अपने शिखर पर प्रतिष्ठित! तुम कैलाश को उपलब्ध! सहस्रार कहा है योगियों ने उसे। तुम्हारी आखिरी ऊंचाई चैतन्य की। कहो परमात्मा, समाधि, संबोधि, निर्वाण, मोक्ष। अंतर नहीं पड़ता शब्दों से। लेकिन भीतर की कुछ सीढ़ियां चढ़नी हैं। मूढ़ वही है, जो बाहर की सीढ़ियां चढ़ रहा है और बाहर की सीढ़ियों पर भरोसा कर रहा है; और सोचता है, सीढ़ियों पर चढ़कर मैं चढ़ जाऊंगा। बाहर धन इकट्ठा करता है और सोचता है, इससे मेरी निर्धनता मिट जाएगी। निर्धनता मिटती है जरूर, पर भीतर का धन खोजना पड़ता है। भीतर है निर्धनता, तो भीतर के धन से ही मिटेगी। बाहर के धन से भीतर की निर्धनता कैसे मिटेगी? साम्राज्य बड़ा होता जाएगा। तुम तो जैसे थे, वैसे ही रहोगे। भय है कि कहीं और न सिकुड़ जाओ। क्योंकि साम्राज्य बढ़ाने में तुम्हें आत्मा गंवानी पड़ेगी। साम्राज्य बड़ा करना हो तो तुम्हें चुकाना पड़ेगा मूल्य अपनी आत्मा के कतरों से। तोड़-तोड़कर, बांट-बांटकर अपने को मिटाना पड़ेगा। ___'पुत्र मेरे हैं, धन मेरा है, इस प्रकार मूढ़ चिंतारत होता है।' .. मूढ़ की सारी चिंता यही है। अगर मूढ़ की खोपड़ी में उतरो तो धन, पद, पुत्र, इनके अतिरिक्त तुम कुछ भी न पाओगे। तुम ऐसा कूड़ा-करकट पाओगे कि मूढ़ की खोपड़ी, जैसे म्युनिसपल का कचरा-घर हो, जिसमें जन्मों से कोई सफाई नहीं हुई है। वह तो अच्छा है कि खोपड़ी में परमात्मा ने खिड़कियां नहीं बनायीं। नहीं तो कोई तुम्हारी खोपड़ी में झांक ले तो सब रहस्य खुल जाए। तो ऊपर हम मुस्कुराए चले जाते हैं। ऊपर से हम अपने को सुंदर बना लेते हैं, मुस्कुराहटों में ढांक लेते हैं, फूलों में सजा लेते हैं। इससे क्या फायदा रंगीन लबादों के तले रूह जलती रहे, घुलती रहे, पजमुर्दा रहे ओंठ हंसते हों दिखावे के तबस्सुम के लिए 17
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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