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________________ लुत्फ-ए-मय तुझसे क्या कहूं! डुबा न दे। नहीं तो तुम अपनी आत्मा को कभी खोज ही न पाओगे। समाज से मुक्त होने की हिम्मत चाहिए। क्योंकि समाज निम्नतम तल पर जीता है, क्योंकि वह सब का जोड़ है। मूढ़ों की बड़ी संख्या है। वे भी उसमें जुड़े हैं। उनकी ही भीड़ है। उनका ही बहुमत है। वे भी उसमें जुड़े हैं। इसलिए अगर तुम भीड़ के साथ खड़े हो तो तुम्हें निम्नतम के साथ खड़ा रहना पड़ेगा। अगर तुम भीड़ की मानकर चलते हो तो तुम पाओगे कि तुम अपने श्रेष्ठतम की पुकार को नहीं सुन सकते फिर। तुम्हें निकृष्ट की पुकार ही सुननी पड़ेगी। अद्वितीय होने का अर्थ इतना ही है कि तुम यह जानना कि तुम भीड़ के एक अंग नहीं हो। भीड़ में जीना भला, लेकिन भीड़ से अपनी दूरी भी बनाए रखना, फासला भी बनाए रखना। भीड़ तुम्हें डुबा न ले। तुम अपने अनूठेपन को कायम रखना। लेकिन अगर इतनी ही बात होती तो यह अनूठापन अहंकार बन जाता। भीड़ से तो अलग करना और समष्टि में डुबाना। समाज से तो मुक्त होना और समष्टि में डूबना। वो अपने हर कदम पर है कामयाबे-मंजिल आजाद हो चुका जो तकलीदे-कारवां से यह जो यात्री-दल है, इसके साथ चलने से जो मुक्त हो चुका, उसकी मंजिल उसके हर कदम पर उसके साथ है। इसके साथ ही अगर तुम्हें चलने की जिद है तो तुम कहीं न पहुंच पाओगे। यह भीड़ कहीं पहुंचती नहीं मालूम होती। यह चलती ही रहती है। लोग बदलते जाते हैं, भीड़ चलती रहती है। तुम नहीं थे, कोई और चल रहा था। एक हटता है, दस आ जाते हैं। भीड़ चलती जाती है। ___ यह भीड़ कभी नहीं पहुंचती। व्यक्ति पहुंचे हैं, भीड़ कभी नहीं पहुंची। तुमने कभी सुना, कोई भीड़ बुद्धत्व को उपलब्ध हो गई है? कोई भीड़ बुद्ध बन गई हो, मोहम्मद बन गई हो, कबीर, नानक बन गई हो? जब कोई बनता है, तो व्यक्ति। यह भीड़ तो कभी नहीं कुछ बनती। यह कभी नहीं कहीं पहंचती। इसकी मंजिल आती ही नहीं। यह यात्री-दल, यात्री-दल ही है। बस, यह यात्रा ही करता है। इससे थोड़ा मुक्त होना जरूरी है। इसकी चाल में चाल लगाए रखना ठीक नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम इससे व्यर्थ, नाहक उलझने लगो, लड़ने-झगड़ने लगो। क्योंकि अगर लड़ना-झगड़ना शुरू किया तो भी तुम भीड़ में ही उलझे रहोगे। इसलिए मैं तुम्हें कोई झंझट लेने के लिए नहीं कह रहा हूं कि भीड़ पूरब जाती हो तो तुम पश्चिम जाओ; कि भीड़ पैर के बल चलती हो तो तुम शीर्षासन लगाओ; कि भीड़ जो करती हो, उससे तुम उलटा करो। क्योंकि उलटा करने में भी तुम भीड़ से ही बंधे रहोगे। तुम भीड़ की फिक्र ही छोड़ दो। तुम भीड़ के प्रति धीरे-धीरे तटस्थ, उदास हो
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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