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________________ एस धम्मो सनंतनो पड़ने लगें। तुम अपने तईं फूल न हो सकोगे। सुबह जब सूरज उगता है और सूरज की किरणें नाच उठती हैं आकर कली की निकटता में, सामीप्य में-कली के ऊपर-जब सूरज की किरणों के हल्के-हल्के पद कली पर पड़ते हैं, तो कली खिलती है, फूल बनती है। जब तक तुम्हारे ऊपर परमात्मा के पदचाप न पड़ने लगें, उसके स्वर आकर आघात न करने लगें, तब तक तुम कली की तरह ही रहोगे। और कली की पीड़ा यही है कि खिल नहीं पाई। जो हो सकता था, वह नहीं हो पाया। नियति पूरी न हो, यही संताप है, यही दुख है। हर आदमी की पीड़ा यही है कि वह जो होने को आया है, नहीं हो पा रहा है। लाख उपाय कर रहा है-गलत, सही; दौड़-धूप कर रहा है, लेकिन पाता है, समय बीता जाता है और जो होने को मैं आया हूं वह नहीं हो पा रहा हूं। और जब तक तुम वही न हो जाओ जो तुम होने को आए हो, तब बक संतोष असंभव है। स्वयं होकर ही मिलता है परितोष। तो सुनो प्रभु के पद जहां से भी सुनाई पड़ जाएं। और धीरे-धीरे सब तरफ से सुनाई पड़ने लगेंगे। जिस दिन हर घड़ी उसी का अनुभव होने लगे, कि वही द्वार पर खड़ा है, उस क्षण फूल हठात खुल जाता है। वह जो सुगंध तुम अपने भीतर लिए हो, अभिव्यक्त हो जाती है। वही अनुग्रह है, उत्सव है, अहोभाव है। चमन में फूल तो खिलते सभी ने देख लिए सिसकते गुंचे की हालत किसी को क्या मालूम मुझे मालूम है। तुम्हारी सबकी हालत मुझे मालूम है। क्योंकि वही हालत कभी मेरी भी थी। उस पीड़ा से मैं गुजरा हूं : जब तुम खोजते हो सब तरफ, कहीं सुराग नहीं मिलता; टटोलते हो सब तरफ और चिराग नहीं मिलता; और जिंदगी प्रतिपल बीती चली जाती है, हाथ से क्षण खिसकते चले जाते हैं, जीवन की धार बही चली जाती है-यह आई मौत, यह आई मौत; जीवन गया, गया और कुछ हो न पाए; पता नहीं क्या लेकर आए थे, समझ में ही न आया; पता नहीं क्यों आए थे, क्यों भेजे गए थे, कुछ प्रतीति न हुई; गीत अनगाया रह गया, फूल अनखिला रह गया। सुनो उसकी आवाज और सभी आवाजें उसकी हैं, सुनने की कला चाहिए। गुनो उसे, क्योंकि सभी रूप उसी के हैं, गुनने की कला चाहिए। जागते-सोते, उठते-बैठते एक ही स्मरण रहे कि तुम परमात्मा से घिरे हो। शुरू-शुरू में चूक-चूक जाएगा, भूल-भूल जाएगा, विस्मृति हो जाएगी, पर अगर तुम धागे को पकड़ते ही रहे, तो जैसा बुद्ध कहते हैं, तुम फूलों के ढेर न रह जाओगे। वही सुरति का धागा तुम्हारे फूलों की माला बना देगा। __और फिर मैं तुमसे कहता हूं-फिर-फिर कहता हूं जिस दिन तुम्हारी माला तैयार है, वह खुद ही झुक आता है, वह अपनी गर्दन तुम्हारी माला में डाल देता है। क्योंकि उस तक, उसके सिर तक, हमारे हाथ तो न पहुंच पाएंगे। बस, हमारी माला तैयार हो, वह खुद हम तक पहुंच जाता है। 198
SR No.002379
Book TitleDhammapada 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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