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एस धम्मो सनंतनो
धार्मिक हो गए; कैसे धर्मगुरुओं से बच गए, यह आश्चर्य है! कोई बुद्ध, कोई क्राइस्ट धर्मगुरुओं से बचकर भी धार्मिक हो गया। अन्यथा धर्मगुरुओं के माध्यम से सारी दुनिया अधार्मिक बनी रही है। ___ भय अधर्म है। और धर्मगुरु ने सिखाया कि इस संसार से घृणा करो, और परमात्मा से भय करो। मेरे देखे दोनों बातें ही खतरनाक हैं। दोनों ही तुम्हारे जीवन को विकृत कर देंगी। मैं तुमसे कहता हूं, इस संसार से भी प्रेम करो, और उस परमात्मा से भी प्रेम करो। और मेरे कहने के पीछे कारण हैं। क्योंकि जो इस संसार को प्रेम न कर सकेगा, वह इस संसार के बनाने वाले को भी प्रेम न कर सकेगा। जिसने इस संसार को इनकार किया, उसने इस संसार के पीछे छिपे हाथों को भी इनकार कर दिया। तुम यह न कह सकोगे कि हे परमात्मा, हम तुझे तो प्रेम करते हैं, लेकिन तेरी बनायी दुनिया को घृणा करते हैं। यह क्या ढंग हुआ! क्या तुम यह कह सकोगे किसी कवि से कि तेरी कविताओं को तो हम नफरत करते हैं और तुझे प्रेम करते हैं? किसी चित्रकार से कह सकोगे कि तेरे चित्रों को तो हम मिटा डालना चाहते हैं, तेरी हम पूजा करना चाहते हैं?
सृष्टि का प्रेम ही तो स्रष्टा के प्रेम में रूपांतरित होगा। और दृश्य के साथ जो प्रेम है वही तो अदृश्य में ले जाएगा।
प्रेम सीढ़ी है। सीढ़ी पर रुकना मत। सीढ़ी बड़ी दूरगामी है। तुमने धन का प्रेम जाना है, धर्म का प्रेम भी जानो। तुमने शरीर को प्रेम किया है; और थोड़े गहरे, और थोड़े गहरे उतरो-और तुम पाओगे कि शरीर में ही छिपी हुई आत्मा की झलकें मिलने लगीं। तुमने व्यक्तियों को प्रेम किया है; थोड़ा और गहरे जाओ, और व्यक्तियों में छिपे हुए तुम समष्टि को पाओगे। तुमने अभी रूप को पहचाना है; अरूप भी वहीं छिपा है, पास ही खड़ा है, ज्यादा दूर नहीं है। रूप के भीतर ही छिपा है। रूप अरूप का ही एक ढंग है। आकार निराकार की ही एक तरंग है। लहर सागर ही है। लहर में सागर ही लहराया है।
लहर को सागर से भिन्न मत मान लेना। संसार को परमात्मा से भिन्न मत मान लेना। जैसे नर्तक को नृत्य से अलग नहीं किया जा सकता, वैसे ही स्रष्टा को सृष्टि से अलग नहीं किया जा सकता।
धर्मगुरुओं ने तुम्हें भय सिखाया, क्योंकि भय के आधार पर ही तुम्हारा शोषण हो सकता है। धर्मगुरुओं ने तुम्हें संसार की घृणा सिखायी, क्योंकि उस घृणा में डालकर ही वे तुम्हें बेचैनी में डाल सकते हैं। वह घृणा पूरी तो नहीं हो पाएगी, तुम अपराध से भर जाओगे। क्योंकि जो अस्वाभाविक है, वह किया नहीं जा सकता।
और जब भी तुम अस्वाभाविक को करने की चेष्टा करोगे, तभी तुम पाओगे तुम्हारे भीतर अपराध-भाव पैदा होता है। नहीं होता, तो अपराध-भाव पैदा होता है-न मालूम कितने जन्मों के पापों के कारण, दुष्कर्मों के कारण, जो होना चाहिए वह नहीं
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