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ताओ उपनिषद भाग ६
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नहीं, एडलर के पास सुझाव नहीं है। एडलर कहता है, समझाने-बुझाने से, एक बौद्धिक प्रौढ़ता से सब ठीक हो जाएगा। 'लेकिन सब ठीक हुआ नहीं है, खुद एडलर के जीवन में ही ठीक न हुआ। एडलर था शिष्य फ्रायड का । लेकिन फिर महत्वाकांक्षा पकड़ गई कि यह तो शिष्य ही रहूंगा; कितना ही बड़ा हो जाऊं; गुरु फ्रायड ही रहेगा । तो गुरु से झगड़ कर अलग हो गया। और फिर पूरी जिंदगी कोशिश की कि एक अलग ही मनोविज्ञान को निर्मित कर ले। वही महत्वाकांक्षा जिसको वह दूसरों में हल करने जा रहा है, वही महत्वाकांक्षा खुद पकड़ ली। और फ्रायड और एडलर के बीच बड़ी वैमनस्य की स्थिति बनी रही।
जो अपना नहीं हल कर पाता वह दूसरे का कैसे हल कर पाएगा ?
एक बड़ा प्रसिद्ध मजाक है एडलर के संबंध में कि वह एक सभा में बोलता था तो उसने अपना सिद्धांत समझाया। और जब भी वह सिद्धांत समझाता था तो वह यह कहता था कि जिन-जिन लोगों में किसी तरह की कमी होती है, वे ही लोग उस कमी को पूरी करने के लिए महत्वाकांक्षा से भर जाते हैं।
अक्सर देखा गया है कि काना आदमी चालाक हो जाता है। पुरानी कहावतें हैं कि काने से जरा सावधान रहना । काना सुबह मिल जाए तो अपशगुन रहा है— सारी दुनिया में। क्या कारण है? क्योंकि काने के पास एक आंख कम है, उस आंख की कमी वह कैसे पूरी करेगा? उसे पूरा करना ही पड़ेगा। वह चालाकी से पूरी करता है; वह ज्यादा चालाक हो जाता है। वह एक ही आंख से दो आंख का काम लेने की कोशिश करने लगता है। इससे चालाकी पैदा होती है। वह कनिंग हो जाता है। इसलिए काने आदमी को तुम सीधा-सरल न पाओगे; उसमें 'कुछ न कुछ तिरछापन होगा। और काने सब तरह की कोशिश करेंगे कि आंख वालों को कैसे हरा दें। क्योंकि इसके सिवा वे अपनी श्रेष्ठता कैसे सिद्ध कर पाएंगे ?
एडलर कहता था कि बचपन में जो लोग ठीक से नहीं चल पाते या जो बच्चे देर से चलते हैं, वे बड़े दौड़ाक हो जाते हैं बाद में। वे दुनिया में जो ओलंपिक प्रतियोगिताएं जीतते हैं वे वही बच्चे हैं जो बचपन में देर से चले। क्योंकि उनको कमी पूरी करनी है; उनको दुनिया को दिखला देना है कि तुम यह मत समझना कि हम कोई धीमे-धीमे चलने वाले हैं। हमारा कोई मुकाबला ही नहीं है । यह समझा रहा था एडलर एक सभा में । एक आदमी ने उठ कर और क्या हम यह समझें कि जिनके मन में कुछ खराबी होती है वे मनोवैज्ञानिक हो जाते हैं ?
कहा,
इस मजाक में थोड़ी सचाई मालूम पड़ती है। क्योंकि न तो फ्रायड स्वस्थ है मन से जिसने इस सदी के मनोविज्ञान जन्म दिया । न उसका प्रतिस्पर्धी एडलर, जुंग, वे स्वस्थ हैं। मानसिक रूप से वे सभी रुग्ण मालूम होते हैं।
पूरब के पास हल है। लाओत्से के पास हल है।
लाओत्से कहता है कि शक्ति की आकांक्षा में ही रोग है। दि विल टु पावर, वहीं सारी बीमारी है। और जब तक वह आकांक्षा ही न छूट जाए तब तक तुम कोई हल न खोज पाओगे। इतना कर सकते हो कि कुछ लोग थोड़े कम बीमार, कुछ लोग थोड़े ज्यादा बीमार । लेकिन फासला मात्रा का रहेगा, गुण का अंतर नहीं होगा । कुछ लोग सामान्य रूप से अस्वस्थ, कुछ लोग असामान्य रूप से अस्वस्थ । लेकिन फासला मात्रा का होगा, गुण का न होगा। लाओत्से कहता है, एक और ही रास्ता है। और वह रास्ता है: घाटी के राज को जान लेना । वर्षा होती है; पहाड़ खाली रह जाते हैं, घाटियां भर जाती हैं, लबालब भर जाती हैं। राज क्या है ? राज यह है कि घाटी पहले से ही खाली है। जो खाली है वह भर जाता है। पहाड़ पहले से ही भरे हैं, वे खाली रह जाते हैं। अहंकार रोग है, तो निरहंकारिता में राज है, कुंजी है।
तुम जब तक दूसरे से अपने को तौलोगे और दूसरे से आगे होना चाहोगे तब तक तुम पाओगे कि तुम सदा पीछे हो। जिसने आगे होना चाहा, वह सदा पाएगा कि वह पीछे है। जिसने प्रतिस्पर्धा की, वह सदा पाएगा कि हार