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ताओ उपनिषद भाग ६
तो अब क्या करते हो?
उसने कहा, फिर अब हनुमान चालीसा पढ़ता हूं; फिर हनुमान अखाड़े में व्यायाम करता हूं। लेकिन अब आशा छूट गई। क्योंकि दो सौ पौंड का हो जाऊंगा, क्या भरोसा कि ढाई सौ पौंड का आदमी नहीं आ जाएगा।
तुम कभी भी हीनता के बाहर नहीं हो सकते उस रास्ते से। कितने लोग हैं! कितने विभिन्न रूप हैं! कितनी विभिन्न कुशलताएं हैं, योग्यताएं हैं! तुम उसमें दब मरोगे। अल्फ्रेड एडलर ने मनुष्य की सारी पीड़ाओं और चिंताओं का आधार दूसरे के साथ अपने को तौलने में पाया है।
गहरे जैसे-जैसे एलडर गया उसको समझ में आया कि आदमी क्यों आखिर अपने को दूसरे से तौलता है? क्या जरूरत है? तुम तुम जैसे हो; दूसरा दूसरा जैसा है। यह अड़चन तुम उठाते क्यों हो? पौधे नहीं उठाते। छोटी सी झाड़ी बड़े से बड़े वृक्ष के नीचे निश्चित बनी रहती है; कभी यह नहीं सोचती कि यह वृक्ष इतना बड़ा है। छोटा सा पक्षी गीत गाता रहता है; बड़े से बड़ा पक्षी बैठा रहे, इससे गीत में बाधा नहीं आती कि मैं इतना छोटा हूं, क्या खाक गीत गाऊं! पहले बड़ा होना पड़ेगा। छोटे से घास में भी फूल लग जाते हैं; वह फिक्र नहीं करता कि इतने-इतने बड़े वृक्षों के नीचे तुम फूल उगाने की कोशिश कर रहे हो, पागल हुए हो! पहले बड़े हो जाओ; फिर फूल लाना। नहीं, प्रकृति में तुलना है ही नहीं; सिर्फ आदमी के मन में तुलना है।
तुलना क्यों है? तो एडलर ने कहा कि तुलना इसलिए है कि तुम और सारी मनुष्यता-एक गहन दौड़ से भरी है। उस दौड़ को एडलर कहता है: दि विल टु पावर, शक्ति की आकांक्षा। कैसे मैं ज्यादा शक्तिवान हो जाऊं! फिर चाहे वह धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो, कुशलता हो, कुछ भी हो। कैसे मैं शक्तिशाली हो जाऊं, यही मनुष्य की सारी दौड़ का आधार है। और जब तुम शक्तिशाली होना चाहोगे तो तुम पाओगे कि तुम शक्तिहीन हो। जितना ही तुम शक्तिशाली होना चाहोगे उतनी ही तुम्हारी अशक्ति का तुम्हें पता चलेगा। क्योंकि जगह-जगह तुम्हारी शक्ति की सीमा आ जाएगी। सिकंदर और नेपोलियन और हिटलर भी चुक जाते हैं। उनकी भी शक्ति की सीमा आ जाती है। आज तक कोई भी व्यक्ति ऐसी जगह नहीं पहुंच पाया जहां वह कह सके कि शक्ति की मेरी आकांक्षा तृप्त हो गई। जो कभी नहीं हुआ वह कभी होगा भी नहीं। और तुम अपने को अपवाद मानने की कोशिश मत करना।
लाओत्से है मार्ग। एडलर ने प्रश्न तो खड़ा कर दिया, उलझन भी साफ कर दी, लेकिन मार्ग एडलर को भी नहीं सूझता कि बाहर इसके कैसे हुआ जाए। पश्चिम के मनोविज्ञान के पास मार्ग है ही नहीं। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान समस्या को समझने में ही उलझा है। अभी समस्या ही समझ में नहीं आई है पूरी तरह तो उसके बाहर जाने की तो बात ही बहुत दूर है। कैसे कोई बाहर जाए? तो एडलर का तो सुझाव इतना ही है कि तुम्हें अतिशय की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए; सामान्य रूप से जो उपलब्ध हो सकता है उसका प्रयास करना चाहिए।
लेकिन इससे कुछ हल न होगा। क्योंकि कहां अतिशय की सीमा शुरू होती है? कौन सी चीज सामान्य है? जो तुम्हारे लिए सामान्य है वह मेरे लिए सामान्य नहीं। जो मेरे लिए सामान्य है, तुम्हारे लिए अतिशय हो सकती है। एक आदमी एक घंटे में पंद्रह मील दौड़ सकता है; वह उसके लिए सामान्य है। तुम एक घंटे में पांच मील भी दौड़ गए तो मुसीबत में पड़ोगे। वह तुम्हारे लिए सामान्य नहीं है। कौन तय करेगा? कहां तय होगी यह बात कि क्या सामान्य है? औसत क्या है? एडलर कहता है, औसत में जीना चाहिए; तो तुम इतने ज्यादा पीड़ित न होओगे। लेकिन औसत कहां है? कैसे तय करोगे? और तुम ही तो तय करने वाले हो और तुम ही रुग्ण हो। तुम्हारे रोग से ही तय होगा कि औसत क्या है। अगर तुमसे कोई पूछे कि एक आंकड़ा बता दो, कितने रुपये से तुम राजी हो जाओगे; कैसे बता पाओगे? और अगर कोई कहता हो कि जितना तुम बताओगे उतना हम देने को तैयार हैं; तब तुम और मुसीबत में पड़ जाओगे। दस हजार? मन कहेगा, क्यों दस हजार की बात कर रहे हो जब बीस मांगे जा सकते हैं?
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