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प्रेम और प्रेम में भेद है
छोड़े। पति की भी जिद्द है कि पत्नी चाहे छूट जाए, सिगरेट नहीं छूट सकती। और दोनों प्रेम में थे, और मां-बाप के विरोध में शादी की थी। शादी बड़ी मुश्किल थी; दोनों अलग-अलग जाति के हैं, अलग धर्मों के हैं। दोनों के परिवार विरोध में थे। सब दांव पर लगा कर शादी की थी, और सब दांव सिगरेट पर लग गया। मैंने उन्हें कहा, तुम कभी यह भी तो सोचो कि तुमने किस छोटी सी बात के लिए सब खो दिया है। लेकिन अहंकार प्रबल है। और पत्नी कहती है कि मैं अपनी शर्त से नीचे उतरने को राजी नहीं हूं। बीस साल गए, और जिंदगी चली जाएगी।
लेकिन जब तुम किसी एक व्यक्ति को प्रेम करते हो, समझ लो उसे पायरिया हो जाए तो क्या करोगे? उसके मुंह से थोड़ी बास आने लगे तो क्या करोगे? क्या प्रेम इतना छोटा है कि उतनी सी बास न झेल सकेगा? समझो कि कल वह आदमी बीमार हो जाए, लंगड़ा-लूला हो जाए, बिस्तर से लग जाए, तो तुम क्या करोगे? कल बूढ़ा होगा, शरीर कमजोर होगा, तो तुम क्या करोगे?
प्रेम बेशर्त है। प्रेम सभी सीमाओं को पार करके मौजूद रहेगा-सुख में, दुख में, जवानी में, बुढ़ापे में।
सिगरेट को पत्नी नहीं झेल पाती। प्रेम सिगरेट से छोटा मालूम पड़ता है, सिगरेट बड़ी मालूम पड़ती है। उसके लिए प्रेम खोने को राजी है, लेकिन प्रेम के लिए सिगरेट की बास झेलने को राजी नहीं है। पति पत्नी से दूर रहने को राजी है, लेकिन सिगरेट छोड़ने को राजी नहीं है। धुआं बाहर-भीतर लेना ज्यादा मूल्यवान मालूम पड़ता है, पत्नी कौड़ी की मालूम पड़ती है। यह कैसा प्रेम है? लेकिन अक्सर सभी प्रेम इसी जगह अटके हैं। सिगरेट की जगह दूसरे बहाने होंगे, दूसरी खूटियां होंगी; लेकिन अटके हैं।
अगर तुमने चाहा कि दूसरा ऐसा व्यवहार करे जैसा मैं चाहता हूं; बस तुमने प्रेम के जीवन में विष डालना शुरू कर दिया। और जैसे ही तुम यह चाहोगे, दूसरा भी अपेक्षाएं शुरू कर देगा। तब तुम एक-दूसरे को सुधारने में लग गए। प्रेम किसी को सुधारता नहीं। यद्यपि प्रेम के माध्यम से आत्मक्रांति हो जाती है, लेकिन प्रेम किसी को सुधारने की चेष्टा नहीं करता। सुधार घटता है, सुधार अपने से होता है। जब तुम किसी को आपूर प्रेम करते हो, इतना प्रेम करते हो जितना कि तुम्हारे प्राण कर सकते हैं, रत्ती भर बाकी नहीं रखते, तो क्या प्रेमी में इतनी समझ न आ सकेगी तुम्हारे इतने प्रेम के बाद भी कि सिगरेट छोड़ दे? इतनी समझ न आ सकेगी इतने बड़े प्रेम के बाद? तब तो प्रेम बहुत नपुंसक है।
और प्रेम नपुंसक नहीं है। प्रेम से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। तुम्हारा प्रेम ही छुड़ा देगा। लेकिन अपेक्षा मत करना। अपेक्षा की कि घाटी की तरफ तुम उतरने लगे। अपेक्षा की और सुधारना चाहा कि बस मुसीबत हो गई।
छोटे-छोटे बच्चे तुम्हारे घर में पैदा होंगे। उनको तुम प्रेम करते हो, लेकिन प्रेम से ज्यादा उनकी सुधार की चिंता बनी रहती है। बस उसी सुधार में तुम्हारा प्रेम मर जाता है। कोई बच्चा अपने मां-बाप को कभी माफ नहीं कर पाता, नाराजगी आखिर तक रहती है। पैर भी छू लेता है, क्योंकि उपचार है, छूना पड़ता है। लेकिन भीतर? भीतर मां-बाप दुश्मन ही मालूम होते रहते हैं। क्योंकि ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर उन्होंने बच्चे को सुधारने की कोशिश की। बच्चे को क्या समझ में आता है? उसे समझ में आता है कि जैसा मैं हूं वैसा प्रेम के योग्य नहीं; जैसा मैं हूं उतना काफी नहीं; जैसा मैं हूं उसको काटना-पीटना, बनाना पड़ेगा, तब प्रेम के योग्य हो पाऊंगा। बच्चे को इसमें निंदा का स्वर मालूम पड़ता है। निंदा का स्वर है।
ध्यान रखना, प्रेम सिर्फ प्रेम करता है, किसी को सुधारना नहीं चाहता। और प्रेम बड़े सुधार पैदा करता है। प्रेम की छाया में बड़ी क्रांतियां घटती हैं। अगर मां-बाप ने बच्चे को सच में प्रेम किया है, बस काफी है। बस काफी है, उतना प्रेम ही उसे सम्हालेगा; उतना प्रेम ही उसे गलत जाने से रोकेगा; उतना प्रेम ही, जब भी वह राह से नीचे उतरने लगेगा, मार्ग में बाधा बन जाएगा। याद आएगी मां की, पिता की, उनके प्रेम की-और उनके बेशर्त प्रेम की-बच्चे के पैर पीछे लौट आएंगे।
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