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ताओ उपनिषद भाग६
समस्या बना लेते हैं; जीवन को जीने की कला भूल ही जाते हैं। वे जीवन के साथ शत्रुता का व्यवहार करते हैं, मित्रता का नहीं।
ऐसा हुआ कि मैं विनोबा के एक आश्रम में, बोधगया में, मेहमान था। पता नहीं कैसे उन्होंने मुझे आमंत्रित कर लिया। जो युवती मेरे भोजन और मेरी देख-रेख के लिए तय की गई थी, आश्रमवासिनी, वह मुझे अति उदास दिखाई पड़ी, मुर्दा-मुर्दा मालूम हुई। तो दूसरे-तीसरे दिन मैंने उससे पूछा कि तू इतनी उदास क्यों है? तो वह रोने लगी, जैसे किसी ने उसका घाव छेड़ दिया। उसने अपनी पूरी कहानी मुझे कही।
उसने मुझे कहा कि मैं बड़ी पापिनी हूं; मुझसे बड़ा अपराधी और कोई भी नहीं; और अपने ही पाप में दबी मैं मर रही हूं। पूछा कि क्या तूने पाप किया होगा? अभी तेरी कोई इतनी उम्र भी नहीं कि बहुत पाप तू कर सके। तू मुझे कह। उसने कहा कि मैं इस आंदोलन में सम्मिलित हुई भूदान के, तो विनोबा ने मुझे ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवा दिया।
और वह मैं सम्हाल न पाई। और एक युवक के प्रेम में पड़ गई। वह युवक भी ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था। तो प्रेम हमें पाप जैसा लगने लगा, क्योंकि प्रेम के कारण ही तो ब्रह्मचर्य का व्रत टूट रहा है। आत्मग्लानि भर गई। अपराध। तो विनोबा के सामने हम दोनों ने प्रार्थना की कि आप ही कुछ उपाय बताएं, हम बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं। न हम प्रेम छोड़ सकते हैं, और न ही हमारी तैयारी है कि हम व्रत को तोड़ दें, क्योंकि वह तो जीवन भर के लिए दुख हो जाएगा। तो हम मझधार में उलझ गए हैं।
विनोबा पहले तो नाराज हुए, क्योंकि व्रत को तोड़ने की बात ही साधु पुरुषों को बुरी लगती है। लेकिन कोई उपाय न देख कर उन्होंने कहा, फिर ऐसा करो, तुम दोनों विवाह कर लो।
युवक-युवती प्रसन्न हुए। उनका विवाह भी हो गया। वे विनोबा से आशीर्वाद लेने गए। उन्होंने आशीर्वाद दिया और आशीर्वाद देते समय कहा कि अब तुम ऐसा करो, तुम्हारा विवाह भी हो गया, अब तुम दोनों आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। भीड़ की करतल ध्वनि! बड़ी सभा थी। विनोबा का प्रवाह वाणी का, व्यक्तित्व का प्रभाव! मन तो उनके सकुचाए कि यह तो फिर वही झंझट खड़ी हुई। लेकिन अहंकार जागा। और इतनी भीड़ के सामने कैसे इनकार करो कि हम ब्रह्मचर्य का व्रत लेने को तैयार नहीं हैं! अहंकार ने सिर उठाया। प्रेम को दबा दिया। निसर्ग को दबा दिया क्षण के प्रभाव में। और इतने लोगों की नजरें अहंकार को बढ़ाने में बड़ा काम करती हैं। फिर लोग क्या कहेंगे कि विनोबा ने कहा और हम व्रत न ले सके! दोनों ने व्रत ले लिया।
अब और भयंकर संघर्ष शुरू हुआ। अब पति-पत्नी हो गए। अब तक तो दूर-दूर थे; अब एक मकान में हो गए। और अब एक चौबीस घंटे निसर्ग से कलह की स्थिति बन गई। तो उस युवती ने कहा कि हम रात सोते थे, तो युवक दूसरे कमरे में, मैं दूसरे कमरे में। वह ताला लगा देता और चाबी खिड़की से मेरे कमरे में फेंक देता कि कहीं रात, किसी अचेतन प्रवाह में, किसी वृत्ति के वेग में, कहीं व्रत न टूट जाए।
सो सकेंगे? शांत हो सकेंगे? बेचैनी बढ़ती गई। युवती को हिस्टीरिया के फिट आने लगे। और युवक इसको और न सह सका, इस अवस्था को, तो पदयात्रा पर निकल गया। जब मैं गया तो पति मौजद न था। फिर भी वह युवती यह नहीं समझ पा रही है कि भूल कहीं विनोबा की है। कहीं साधु पुरुष भूल करते हैं? वे तो सदा तुम्हें ऊंचा ही उठाने में लगे रहते हैं। भल है तो तुम्हारी ही है।
तो आत्मग्लानि से भरी जा रही है। और अनेक बार सोचती है कि आत्महत्या कर लूं, क्योंकि कहीं व्रत न टूट जाए; उससे तो बेहतर खुद ही मिट जाना है। यह युवती शांति को, ध्यान को, समाधि को उपलब्ध हो सकेगी? इस युवती के तो जीवन की साधारण स्वाभाविकता ही नष्ट हो गई। अब तो इसके लिए कोई द्वार न रहा। यह सिर्फ ग्लानि से भरेगी, सड़ेगी। इसमें आत्मा का जन्म होगा? इसका तो शरीर भी मर गया। .
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