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ताओ उपनिषद भाग ६
तुम्हें जो मिला है जीवन में, उसे तुम अपना मान रहे हो। उसमें से कटेगा तो तुम विरोध तो करोगे, लेकिन उसके लिए तुमने धन्यवाद कभी नहीं दिया है। इस भिखारी ने कभी धन्यवाद नहीं दिया उस अमीर को आकर कि तू पचास रुपये महीने हमें देता है, इसके लिए धन्यवाद। लेकिन जब कटा तो विरोध।
जीवन के लिए तुम्हारे मन में कोई धन्यवाद नहीं है, मृत्यु के लिए बड़ी शिकायत। सुख के लिए कोई धन्यवाद नहीं है, दुख के लिए बड़ी शिकायत। तुम सुख के लिए कभी धन्यवाद देने मंदिर गए हो? दुख की शिकायत लेकर ही गए हो जब भी गए हो। जब भी तुमने परमात्मा को पुकारा है तो कोई दुख, कोई पीड़ा, कोई शिकायत। तुमने कभी उसे धन्यवाद देने के लिए भी पुकारा है? जो तुम्हें मिला है उसकी तरफ भी तुम पीठ किए खड़े हो। और इस कारण ही तुम्हें जो और मिल सकता है उसका भी दरवाजा बंद है।
निश्चित ही, परमात्मा का नियम तो निष्पक्ष है, लेकिन तुम नासमझ हो। और जो तुम्हें मिल सकता है, जो तुम्हें मिलने का पूरा अधिकार है, वह भी तुम गंवा रहे हो। लेकिन वह तुम अपने कारण गंवा रहे हो; उसका जिम्मा परमात्मा पर नहीं है।
परमात्मा निष्पक्ष है; वह केवल सज्जन का साथ देता है।
सज्जन का साथ परमात्मा नहीं देता; वह तो चल रहा है, सज्जन उसके साथ हो लेता है; दुर्जन उसके विपरीत हो जाता है। दुर्जन हमेशा विपरीत चलने में रस पाता है, क्योंकि वहीं लड़ाई और कलह और वहीं अहंकार का पोषण है। सज्जन सदा झुकने में, समर्पण में रस पाता है, क्योंकि वहीं असली अहोभाव है, वहीं जीवन का संगीत और नृत्य
और फूल, वहीं जीवन का स्वर्ग और जीवन की परम धन्यता है। वहीं आत्यंतिक अर्थों में जिसको महावीर और बुद्ध ने निर्वाण कहा है, उस निर्वाण की परम शांति है, उस निर्वाण का महासख है।
आज इतना ही।
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