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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ पद मनुष्य के, लेकिन भीतर,की आकांक्षा तो अतृप्त ही रह गई। जल-स्रोत भी करीब आ गया, और प्यास मिटती भी नहीं। तो जल-स्रोत धोखा होगा, मृग-मरीचिका होगा। पदों पर पहुंच कर भी तो आदमी कहां परम पद को उपलब्ध हो पाता है! वहां भी तो भूख उतनी ही रह जाती है, प्यास उतनी ही बनी रहती है, दौड़ उतनी ही जारी रहती है। धन पाकर भी तो परम धन नहीं मिलता। असल में, आकांक्षा तो बिलकुल ठीक है, लेकिन कैसे उस आकांक्षा को पूरा करें, वहां कहीं भूल हो रही है। धर्म तुम्हारे भीतर की परम अभीप्सा को पूरा करने की विधि है। अधर्म भी तुम्हारे भीतर की अभीप्सा को पूरा करने की विधि है; लेकिन गलत। अधर्म भी रास्ता दिखाता है कि आओ। ऐसी कथा है कि जीसस जब परम क्षण के करीब आए और जब उनकी प्रार्थना पूरी होने को हुई, और जब परमात्मा उन्हें अंगीकार करने को राजी हो गया, एक क्षण की देर थी कि जीसस तो मिट जाएंगे और क्राइस्ट का जन्म हो जाएगा, तभी शैतान बीच में आ खड़ा हुआ। और शैतान ने कहा, तुम जो चाहते हो मैं पूरा करने को राजी हूं। तुम्हें सारे संसार का सम्राट बनना है? बस कहो, कहने की देर है और मैं तुम्हें बना दूं। तुम्हें धन चाहिए? अपरिसीम धन चाहिए? कुबेर का खजाना चाहिए? बोलो! तुम बोले कि मैं पूरा कर दूं। तुम्हारी जो भी कामना हो, जिस लिए तुम प्रार्थना कर रहे हो, तुम बता दो। जीसस ने कहा, हट शैतान, मेरे पीछे हट! मैं तुझसे नहीं मांग रहा हूं। और तुझसे अगर जो भी लेने को राजी हो गया वह सदा-सदा भटकेगा। तेरे धन से तो निर्धन होना बेहतर। और तेरे राज्य से तो भिखारी होना बेहतर। क्योंकि तू मृग-मरीचिका है। तू धोखा है। जब भी कोई खोजने निकलेगा तब हजार धोखों के जाल भी हैं। कोई शैतान नहीं तुम्हें धोखा दे रहा है; तुम्हारा मन ही सस्ता रास्ता चुनता है। वह कहता है, सिंहासन चाहिए? दिल्ली चलो। धन चाहिए? धन कमाओ। बाजार है, चोरी करो, बेईमानी करो, लूटो-खसोटो। रास्ता तो यह है, हम बताए देते हैं तुम्हें जो चाहिए। मंदिर में प्रार्थना करने किसलिए जा रहे हो? पूजा-अर्चना किसकी कर रहे हो? विधि हमारे पास है। मन तुम्हें रास्ता दे देता है। और मन के रास्ते पर चल-चल कर तुम जन्मों-जन्मों भटके हो। अभी भी मंजिल करीब नहीं दिखाई पड़ती, उतनी ही दूर है, जितनी पहले दिन तुम्हारी चेतना के लिए रही होगी। रत्ती भर भी यात्रा नहीं हो पाई। चले बहुत हो, लेकिन एक वर्तुलाकार परिधि में घूम रहे हो। कोल्हू के बैल जैसी तुम्हारी यात्रा है। चलता दिन भर है, पहुंचता कहीं भी नहीं। सांझ पाता है वहीं खड़ा है। फिर भी दिन भर चलता है इसी आशा में कि शायद कहीं पहुंच जाएगा। कोल्हू के बैल को चलाने के लिए उसका मालिक उसकी आंखों के दोनों तरफ पट्टियां बांध देता है, ताकि उसे आस-पास दिखाई न पड़े, सिर्फ सामने दिखाई पड़े। तांगे में घोड़े को जोतते हैं तो उसके पास भी पट्टियां बांध देते हैं, उसे सामने दिखाई पड़े। सामने दिखाई पड़ने से भ्रांति पैदा होती है; रास्ता गोलाकार है, यह नहीं दिखाई पड़ता। जब सामने दिखाई पड़ता है, रास्ता सीधा मालूम पड़ता है। अगर वह आस-पास देख ले तो पता चल जाए कि यह तो मैं वहीं के वहीं घूम रहा हूं। मन भी रेखाबद्ध कोल्हू के बैल की तरह चलता है। उसे दिखाई नहीं पड़ता कि मैं वहीं-वहीं घूम रहा हूं। थोड़ा जाग कर, थोड़ा मन से दूर खड़े होकर देखो। वही क्रोध, वही काम, वही लोभ बार-बार तुम करते रहे हो। नया क्या है? हर बार किया है, पछताया है। पछतावा तक नया नहीं है, वही तुम बार-बार करते रहे हो। लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। तुम सोचते हो यात्रा हो रही है। यात्रा नहीं हो रही, तुम सिर्फ चल रहे हो, पहुंच नहीं रहे। जरा सी भी तो तृप्ति की गंध नहीं आती। जरा सा भी तो परितोष नहीं बरसता। कहीं से भी तो कोई दीया नहीं जलता दिखाई पड़ता। अंधेरा वैसा का वैसा है। 304
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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