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धर्म का सूर्य अब पश्चिम में उगेगा
शास्त्र ठीक से समझ लिया और व्यवस्था बना ली तो पूरब का कोई मुकाबला न रह जाएगा। अध्यात्म का शास्त्र तो उसके पास है; नीचे की दो सीढ़ियां टूट गई हैं। ऊपर की तीसरी सीढ़ी है। और नीचे की दो सीढ़ियां न बनें तो तुम कैसे तीसरी सीढ़ी पर पहुंचोगे? तुम गुणगान कर सकते हो, स्तुति कर सकते हो तीसरी सीढ़ी की, चढ़ नहीं सकते। इसलिए तुम पूजा कर रहे हो गीता की, उपनिषद की, वेद की। वेद, गीता, उपनिषद सीढ़ियां हैं, जिन पर चढ़ो। पूजा करने से क्या होगा? लेकिन चढ़ोगे तुम कैसे, पहली दो सीढ़ियां टूटी हुई हैं।
अगर ठीक से समझो तो पश्चिम इस समय तुमसे बेहतर हालत में है। उसकी पहली दो सीढ़ियां तैयार हैं; तीसरी नहीं है। तीसरी बनाई जा सकती है। वह तीसरी की तलाश में लगा है। वह जल्दी ही तीसरी को बना लेगा। इसके पहले कि वह तीसरी को बनाए, तुम पहली दो जो खो गई हैं, मिट गई हैं, उनको सुधार लो; उखड़ गई हैं, उनको जमा लो। अन्यथा अध्यात्म के लिए भी तुम्हें सीखने पश्चिम जाना पड़ेगा। और इससे बड़े दुर्भाग्य की कोई बात न होगी। सदियों-सदियों तक हमने उस पूरे शास्त्र को निर्मित किया है, और तुम्हें उसे भी सीखने पश्चिम जाना पड़े और क्या दुर्भाग्य होगा? लेकिन पहली दो सीढ़ियां न हों तो तीसरी सीढ़ी भी टूट जाएगी, बच नहीं सकती। कैसे तुम सम्हालोगे? क्योंकि वे दो सीढ़ियां ही उसका आधार हैं।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि गरीब धार्मिक नहीं हो सकता; उसकी दो सीढ़ियां खो गई हैं। अमीर जरूरी नहीं है कि धार्मिक हो जाए, लेकिन चाहे तो हो सकता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। अमीर होने से कोई धार्मिक हो जाएगा, यह जरूरी नहीं है, लेकिन चाहे तो हो सकता है। अमीर होने से उस जगह तो आ जाता है जहां इस जीवन का सब व्यर्थ दिखाई पड़ने लगता है। जब तक तुम्हारे पास धन नहीं है, धन की व्यर्थता न दिखाई पड़ेगी।
और जब तक तुम्हारे पास सुंदर स्त्रियां नहीं हैं तब तक सुंदर स्त्रियों की व्यर्थता न दिखाई पड़ेगी। और जब तक तुमने पदों पर बैठ कर नहीं देखा तभी तक पदों की मूर्खता दिखाई न पड़ेगी। जब तुम जीवन का सब राग-रंग देख लेते हो तभी तुम्हें पता चलता है कि यह तो सब नासमझी है।
लेकिन जरूरी नहीं है। जैसा मैंने कल कहा कि अगर गरीब आदमी को धार्मिक होना हो तो बड़ा कल्पनाप्रवण, संवेदनशील, बड़ी गहरी बुद्धिमत्ता चाहिए, ताकि वह उसको भी देख ले जो उसके पास नहीं है, और इतने गहरे में देख ले कि उसकी व्यर्थता दिखाई पड़ जाए। अमीर आदमी को अगर धार्मिक होना हो तो बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है, न बहुत संवेदनशीलता की जरूरत है। न्यूनतम बुद्धि से भी काम चल जाएगा। इसलिए बुद्ध अमीर भी धार्मिक हो सकता है, चाहे तो। केवल बद्धिमान गरीब धार्मिक हो सकेगा, वह भी बहुत श्रम करे तो। क्योंकि अमीर उस स्थिति में होता है जहां चीजों की व्यर्थता दिखाई पड़नी ही चाहिए, अगर थोड़ी भी बुद्धि हो। और अगर किसी अमीर को तुम पाओ कि वह धार्मिक नहीं हुआ तो समझना कि वह इतनी गई-बीती बुद्धि का है कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; वह अंधा है। अमीर बिलकुल अंधा हो तो ही धार्मिक होने से बच सकता है, नहीं तो धार्मिक हो ही जाएगा। क्योंकि क्या पाता है? महलों के भीतर रिक्तता है, सूना हृदय है, प्रेम के कोई मेघ नहीं बरसते, न कोई अमृत की धार बहती है, न कहीं कोई आनंद का निनाद सुना जाता है; बड़े महल करीब-करीब कब्रों जैसे हैं जहां सब मुर्दा है। अमीरों के पास बाहर सब कुछ होता है, भीतर कुछ भी नहीं। बुद्ध से बुद्धू को भी दिखाई पड़ सकता है कि भीतर कुछ भी नहीं है।
इसलिए पश्चिम ज्यादा देर निराश न रहेगा, ज्यादा देर हताश न रहेगा; राह तोड़ ही लेगा। और वही कोशिश चल रही है। इसलिए पश्चिम पूरब की तरफ दौड़ रहा है-सीखने उस शास्त्र को जिससे तीसरी सीढ़ी निर्मित हो जाए, बंद दीवाल टूट जाए, द्वार बन जाए। एक बार पश्चिम के हाथ में कुंजियां आ गईं कि तुम्हें पश्चिम जाना पड़ेगा सीखने धर्म को भी। क्योंकि पश्चिम बड़ा कुशल है; जिस चीज को भी करता है, फिर बड़ी संलग्नता से करता है।
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