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________________ धर्म का सूर्य अब पश्चिम में उमेगा पूरब में ऐसा आदमी पाना कभी-कभी होता है जिसकी कोई हॉबी हो। जीवन ही काफी है, हॉबी की फुरसत कहां है? आठ-दस घंटे दफ्तर और दुकान में काम करके कोई लौटता है, बारह घंटे खेत में श्रम करके कोई लौटता है; अब पेंटिंग करने की ऊर्जा कहां है? अब गीत बनाए कौन? प्राण तो पसीने में बह गए, अब गीत गाए कौन? भीतर सब रिक्त हो गया। किसी तरह पड़ जाता है, सो जाता है। सुबह उठ कर फिर वही दौड़ शुरू हो जाती है। कौन सुने आकाश का संगीत? किसको समय है कि आंखें खोले और आकाश के तारों को देखे? इतनी फुरसत किसे है? कौन देखे फूलों को? फूल को देखने के लिए सुविधा चाहिए, थोड़ी चैन चाहिए। फूल को पहचानने को तो काफी विराम की दशा चाहिए। तो पश्चिम में लोग मन के तल पर हैं, और इसलिए महा विषाद से घिर गए हैं। क्योंकि अब आगे कुछ नहीं दिखाई पड़ता। जान लिया संगीत, गा लिए गीत, बना ली मूर्तियां, चित्र बना लिए, घर सौंदर्य से भर गया। अब? एक चट्टान खड़ी हो गई है सामने। अब जीवन अर्थहीन मालूम पड़ता है। अर्थ तो आता है लक्ष्य से; जब लक्ष्य खो जाता है तो अर्थ खो जाता है। गरीब आदमी का लक्ष्य है रोटी। तो अभी जीवन में अर्थ है, क्योंकि रोटी पानी है। असल में, अर्थ को सोचने की सुविधा नहीं है। फिर अमीर आदमी का लक्ष्य है मन के वैभव, मन का सुख-सौष्ठव, मन का संगीत। लोग सोचते हैं कि जब सब होगा तो सुनेंगे शांति से लेट कर संगीत, सुनेंगे पक्षियों को। लेकिन वह भी चुक जाता है, क्योंकि वह भी सब प्रकृति का ही है, वह भी ऐंद्रिक है। जिस दिन वह भी चुक जाता है उस दिन महा विषाद घेर लेता है: अब किसलिए जीएं? शरीर भरा-पूरा, मन भी भरा-पूरा, कुछ पाने को नहीं दिखाई पड़ता; कहीं जाने को नहीं दिखाई पड़ता; जो पाना था, पा लिया; जो मिल सकता था बाजार में, खरीद लिया; जिसकी सुविधा थी समाज में, वह भी पा लिया; संस्कृति जो दे सकती थी श्रेष्ठतम-मोझर्ट और वेजनर और बीथोवन, सब सुन लिए; और कालिदास और भवभूति, सब पढ़ लिए। अब? अब क्या? जब यह अब खड़ा हो जाता है मन के बाद, तब लगता है कि जीवन में कोई अर्थ नहीं। इसलिए पश्चिम के बड़े से बड़े विचारक-सार्च, जेस्पर्स, हाइडेगर-वे सब विषाद से भरे हैं। वे उसी दशा ' में हैं जिस दशा में बुद्ध ने महल छोड़ा था। जिस रात बुद्ध महल को छोड़ कर गए थे, महा विषाद से भरे थे। वह विषाद उनके प्राणों को काट रहा था। एक आरे की तरह उनका जीवन कट रहा था दुख से; सब था और कोई सार न था। सब व्यर्थ था; जिंदगी सिर्फ एक ऊब थी। जिस रात बुद्ध ने छोड़ा था घर वह अमावस की रात थी, और भीतर भी अमावस की निराशा घिरी थी, अमावस जैसा अंधेरा घिरा था। सात्र, हाइडेगर, मार्शल उसी अवस्था में हैं पश्चिम में। कठिनाई उनकी यह है कि पश्चिम की पूरी जीवन-व्यवस्था आत्मा को अस्वीकार करती रही है। और जिसे तुम अस्वीकार करते हो वह द्वार बिलकुल बंद हो जाता है। पूरब की जीवन-व्यवस्था आत्मा को सदा स्वीकार करती रही है। जिस दिन तुम थक जाओगे मन से, सब नहीं समाप्त हो गया; अभी एक चीज और बाकी है। पूरब की हवा में एक चीज सदा बाकी है। असल में, तुम उसी के लिए अब तक शरीर की तैयारी कर रहे थे, मन की तैयारी कर रहे थे; अब तो मौका आ गया जब अब तुम उसकी खोज में लग सकते हो जो वास्तविक खोज है। पश्चिम मानता है शरीर और मन को उसके आगे उसकी मान्यता नहीं है, बस। इसलिए पश्चिम में बड़ा उपद्रव है। जब मन चुक जाता है, मन के भोग चुक जाते हैं, तब पश्चिम में एक उदासी घेर लेती है और सिर्फ आत्महत्या उपाय दिखती है। आत्म-साधना नहीं, आत्महत्या उपाय दिखती है। यहीं पूरब और पश्चिम का फर्क है। पूरब की धारा जब सब चुक जाए तब एक नया लक्ष्य देती है-आत्मा, जो पश्चिम में नहीं है। 265
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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