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ताओ उपनिषद भाग ६
लेकिन स्टैलिन महा नेता हो गया। साम्यवाद के इतिहास में उसकी कथा स्वर्ण-अक्षरों में लिखी जाएगी। है सिर्फ बड़ा डाकू, लेकिन डाकू एक दर्शनशास्त्र के साथ। दुनिया के सब राजनेता डाकुओं से भिन्न नहीं हैं। करते वही हैं, लेकिन उनके पास कुशलता है।
तो ध्यान रखना, या तो भय तुम्हें इतना भयभीत कर देगा कि तुम जिंदगी भर मुर्दे की तरह जीओगे। या भय तुम्हें इतनी चुनौती से भर देगा कि तुम जिंदगी भर बगावती की तरह जीओगे। लेकिन दोनों हालत में तुम जीवन से वंचित रह जाओगे। क्योंकि जीवन तो उसे मिलता है जो न भीरु है और न बगावती है। तभी तो जीवन-चेतना स्वयं में ठहर पाती है। भयभीत दूसरे से डरता रहता है; निर्भीक दूसरे को डराने की कोशिश करता रहता है। दोनों हालत में जीवन-ऊर्जा व्यर्थ होती है, नष्ट होती है।
तो न तो भयभीत ने कभी परमात्मा को जाना और न निर्भीक ने कभी परमात्मा को जाना। इन दोनों से अलग एक जीवन-दशा है जिसको मैं अभय कहता हूं। अभय न तो भयभीत होता है और न निर्भीक होता है। अभय का मतलब यह है कि न तो वह किसी को डराना चाहता है और न किसी से डरता है। चेतना अपने में थिर हो जाती है।
और जब चेतना अपने में लौटती है, अपने में गिरती है जब चेतना की धारा, तो जीवन का परमानंद, परम-स्वाद उपलब्ध होता है।
अब हम लाओत्से के सूत्र को समझने की कोशिश करें। 'लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं; तब उन्हें मृत्यु की धमकी क्यों दी जाए?' पहली बात, 'लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं।'
क्योंकि अगर वे मृत्यु से भयभीत होते तो उनके जीवन में क्रांति घटित हो जाती। लोग सोचते हैं, मृत्यु सदा दूसरे की होती है। और सोचना ठीक भी है, क्योंकि तुम सदा दूसरे को मरते देखते हो, खुद को तो तुमने मरते कभी देखा नहीं। कभी इस पार का पड़ोसी मरता है, कभी उस पार का पड़ोसी मरता है। हमेशा दूसरा मरता है। लाश तो निकलती है, लेकिन किसी की निकलती है। तुमने अपनी लाश तो निकलती देखी नहीं। उसे तुम कभी देखोगे भी नहीं; दूसरे देखेंगे उसे। तो ऐसा लगता है मृत्यु सदा दूसरे की होती है-एक बात।
जिसको ऐसी याद आ गई कि मृत्यु मेरी होती है, वह तो खुद बदल जाएगा। तुम्हें उसे भयभीत करने की जरूरत न रहेगी। क्योंकि जिसे यह दिखाई पड़ा कि मृत्यु मेरी होने वाली है, वह तो एक अर्थ में इस जीवन के प्रति जो उसकी वासना है, तृष्णा है, उसको छोड़ देगा। क्योंकि जब मरना ही है, जब क्षण भर ही यहां होना है, तो इतना आग्रह होने का क्या मूल्य रखता है ? तो उसकी तृष्णा विलीन हो जाएगी।
जिसको मृत्यु दिखाई पड़ने लगी उसकी तृष्णा विलीन हो जाएगी। और जिसकी तृष्णा विलीन हो जाती है वह आदमी बुरा तो हो ही नहीं सकता। बुरे तो हम तृष्णा के कारण होते हैं; वासना के कारण बुरे होते हैं। दूसरे से हम छीनते इसी आशा में हैं कि वह हमारे पास बचेगा-सदा और सदा।।
लेकिन जब हम ही खो जाने को हैं, और क्षण भर बाद आ जाएगा मृत्यु का संदेशा और हमें विदा होना होगा, तो क्या छीनना है किसी से? अगर कोई दूसरा भी हमसे छीन ले जाए तो हम ले जाने देंगे। क्योंकि दूसरा शायद भ्रांति में हो कि सदा यहां रहना है; हम इस भ्रांति में नहीं हैं।
जिसको मृत्यु का स्मरण आ गया, जिसे मृत्यु का बोध हो गया, उसे तुम्हें थोड़े ही बदलना पड़ेगा! समाज को थोड़े ही बदलना पड़ेगा! वह बदल जाएगा स्वयं।
जिनको तुम्हें बदलना पड़ता है उनको मृत्यु की याद भी नहीं है। वे बिलकुल भूले हुए हैं। वे ऐसे जी रहे हैं जैसे सदा रहना है। वे इस तरह के मजबूत मकान बना रहे हैं कि जैसे सदा रहना है। वे इस तरह का बैंक बैलेंस इकट्ठा कर
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