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________________ अभय और प्रेम जीवन के आधार छों इसलिए जिनको तुम अपराधी कहते हो वे निर्भीक लोग हैं, और जिनको तुम सज्जन कहते हो, साधु-चरित्र कहते हो, वे भयभीत-भीरु लोग हैं। इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि अपराधी तो कभी-कभी छलांग ले लेता है संतत्व की, तुम्हारा जिसको तुम सज्जन आदमी कहते हो वह कभी छलांग नहीं ले पाता। छलांग लेने की हिम्मत ही उसमें नहीं है। भय के कारण ही तो वह अच्छा है। और भय के कारण छलांग कैसे लेगा? वह जिंदगी भर सोचता रहेगा, खड़ा रहेगा, विचार करेगा; छलांग नहीं ले सकेगा। अपराधी कभी-कभी छलांग ले सकता है, एक क्षण में छलांग ले सकता है। क्योंकि कम से कम निर्भीक है। डर के कारण जीवन की व्यवस्था उसने नहीं बनाई है। दूसरा एक पहलू इस बात का और भी समझ लेना जरूरी है कि जब तुम समाज में डर को आधार बना लेते हो नीति का, तो जो भीरु हैं वे और भीरु हो जाते हैं और जो निर्भीक हैं वे और निर्भीक हो जाते हैं। घर में अगर पांच बच्चे हैं, तो जो उनमें से ज्यादा उपद्रवी है वह और उपद्रवी हो जाएगा तुम्हारे डराने से, और जो उपद्रवी थे ही नहीं वे डर कर बिलकुल मुर्दा हो जाएंगे, वे मिट्टी के लोंदे हो जाएंगे। भय का परिणाम दो प्रकार से फलित होता है। जब तुम किसी को भयभीत करते हो, अगर वह अहंकार में अभी कच्चा है तो डर जाएगा, और डर कर भला हो जाएगा; और अगर अहंकार में पक्का हो गया है तो तुम्हारे डराने के कारण वही काम करके दिखाएगा जो तुम चाहते थे कि वह न करे। तो तुम्हारा भय उसके लिए चुनौती बन जाएगा और उसके जीवन में अपराध की भावना पैदा करेगा। तो भय ने कुछ लोगों को भीरु बना कर गोबर-गणेश कर दिया है। उनके जीवन में कोई ऊर्जा नहीं रही। वे मरे-मरे जी रहे हैं; लाश की तरह उनका जीवन है। और कुछ लोगों को भय ने चुनौती दे दी है; वे दुष्ट-अपराधी हो गए हैं। क्योंकि तुमने जो कहा था मत करो, उनके अहंकार ने उसको चुनौती मान लिया और उसे करके वे दिखा कर रहेंगे। चाहे कुछ भी हो जाए, जीवन दांव पर लगा देंगे। ये दोनों ही दुष्परिणाम हैं। दोनों से ही समाज बड़ी विकृत दशा में भर गया है। या तो भयभीत लोग हैं जो अच्छे हैं; और या निर्भीक लोग हैं जो बुरे हैं। होना इससे उलटा चाहिए कि अच्छा आदमी निर्भीक हो और बुरा आदमी भीरु हो। लेकिन भय के शास्त्र ने स्थिति उलटी कर दी है। अच्छे आदमी में निर्भीकता होनी चाहिए, बुरे आदमी में भीरुता होनी चाहिए। लेकिन बुरा तो अकड़ कर चलता है; अच्छे की रीढ़ टूट गई है। भय के शास्त्र ने ये दो परिणाम दिए हैं; दोनों ही महा घातक हैं। प्रेम का शास्त्र इसके बिलकुल विपरीत है। वह अच्छे को अभय करता है, बुरे को भयभीत करता है। भयभीत करता नहीं, बुरा अपने आप भयभीत होता है। अच्छा अपने आप अभय को उपलब्ध होता है। क्योंकि जितनी ही प्रेम में गति होती है उतना ही अभय उपलब्ध होता है; प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति डरता नहीं; कोई कारण डरने का न रहा। प्रेम मृत्यु से भी बड़ा है। तुम प्रेम को मृत्यु से भी नहीं डरा सकते। तुम कहो, हम मार डालेंगे! तो प्रेम मरने को तैयार हो जाएगा, लेकिन डरेगा नहीं। प्रेमी मर सकता है शांति से; जीवन को भी दांव पर लगा सकता है। क्योंकि जीवन से भी बड़ी चीज उसे मिल गई। जब बड़ी चीज मिलती हो, छोटी चीज को दांव पर लगाया जा सकता है। तुम डरते हो जीवन के खोने से, क्योंकि जीवन से बड़ा तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं है। और तुम तब तक डरते ही रहोगे जब तक जीवन से बड़ा कुछ तुम्हारे हाथ में न आ जाए। परमात्मा हाथ में आ जाए, प्रेम हाथ में आ जाए, प्रार्थना आ जाए, ध्यान आ जाए, समाधि आ जाए, तब तुम जीवन को ऐसे दे दोगे जैसे कुछ मूल्य ही न था। तुमने जीवन का सार पा लिया। जीवन के अवसर से जो मिलने वाली थी सुगंध वह तुम्हें मिल गई। अब तुम जीवन को दे सकते हो। अब कोई तुमसे जीवन छीनता हो तो तुम हंसते हुए मर सकते हो। अब तुम्हें कोई डरा न सकेगा। और जो जीवन छोड़ सकता है उसे तुम कैसे डराओगे? क्योंकि डर तो मूलतः मृत्यु का डर है। सब डर मौलिक रूप से मृत्यु का डर है। अब तुम क्या डराओगे? 225
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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