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मा रोग है और जागरण स्वास्थ्य
और एक और ज्ञान है जो दूरी से नहीं जाना जाता, जो पास होने से जाना जाता है। जो प्रेम जैसा है; ज्ञान जैसा कम। परमात्मा को तो प्रार्थना में जाना जा सकेगा; जब हृदय भरा होगा गहन प्रेम से। परमात्मा को आंखों से तो नहीं देखा जा सकता। आंखों से तो जो देखा जा सकता है वह संसार है। या चाहो तो ऐसा कहो कि आंखों से जब तुम परमात्मा को देखते हो तो जो तुम्हें दिखाई पड़ता है वह परमात्मा का एक अंश है, संसार। जब तुम आंख बंद करके देखोगे तब तुम उसे देख पाओगे जो परमात्मा है। जब तुम सारी इंद्रियों को बंद करके देखोगे तब तुम उसे जान पाओगे जो परमात्मा है। क्योंकि इंद्रियों के बंद होते ही मन का व्यापार बंद हो जाता है।
विज्ञान, ज्ञान, सब इंद्रियों के ही माध्यम से जाने गए हैं। इसलिए लाओत्से कहता है, ज्ञानी का पहला लक्षण है यह जान लेना कि जो हम जानते हैं वह ज्ञान नहीं है। और इस ज्ञान से हमारा छुटकारा हो तो फिर परम ज्ञान की दिशा में पैर बढ़े। जिसने इसी को ज्ञान समझ लिया वह इसे छाती से लगा कर बैठ जाता है; वह इसे मंजिल समझ लेता है। फिर यात्रा अवरुद्ध हो जाती है।
अब हम लाओत्से के सूत्र को समझें। 'जो जानता है कि मैं नहीं जानता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।'
इस ज्ञान को लाओत्से सर्वश्रेष्ठ ज्ञान कहता है: इस जानने को कि मैं नहीं जानता हूं। अज्ञानी है, ज्ञानी है, और परम ज्ञानी है। अज्ञानी का अर्थ है: जो जानता भी नहीं, लेकिन यह भी नहीं जानता कि मैं नहीं जानता हूं। ज्ञानी का अर्थ है : जो जानता नहीं, लेकिन जानता है कि जानता हूं। परम ज्ञानी का अर्थ है : जो जानता है कि नहीं जानता हूं। तो परम ज्ञानी में एक बात तो अज्ञानी की है, नहीं जानता हूं। और एक बात ज्ञानी की है कि जानता हूं। अज्ञानी और ज्ञानी दोनों के पार हो जाता है परम ज्ञानी। अज्ञानी जानता नहीं, लेकिन यह भी नहीं जानता कि मैं नहीं जानता हूं। परम ज्ञानी भी नहीं जानता, लेकिन जानता है कि नहीं जानता हूं। ज्ञानी जानता नहीं, लेकिन जानता है कि जानता हूं। परम ज्ञानी इतना ही जानता है कि नहीं जानता हूं। इन दोनों के समन्वय में परम ज्ञान की प्रज्ञा का प्रज्वलन होता है।
सुकरात ने कहा है कि जब मैं जवान था तब मैं जानता था मैं सब जानता हूं। ऐसा कुछ भी न था जो मेरी जवानी की अकड़ में मैं न जानता होऊं। फिर मैं बूढ़ा हुआ। तब धीरे-धीरे मेरे ज्ञान के भवन की ईंटें गिरने लगीं। प्रौढ़ता आई; हिम्मत आई स्वीकार करने की कि बहुत सी बातें मैं नहीं जानता हूं। और जैसे ही यह हिम्मत आई वैसे ही पता लगा कि जानता तो बहुत कम हूं, न जानना तो बहुत बड़ा है। और आखिरी क्षणों में सुकरात ने कहा है कि अब जब कि जीवन की धारा पूरी जा चुकी, जब मैं अब परिपूर्ण रूप से विनम्र हो गया हूं, वह दंभ और अहंकार खो गया, शरीर और मन की अकड़ जाती रही, और मौत ने द्वार पर दस्तक दे दी है, तो अब मैं कह देना चाहता हूं संसार को कि मैं सिर्फ एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता।
ऐसा हुआ, कि यूनान में एक बहुत प्रसिद्ध मंदिर है, डेलफी का मंदिर। उस मंदिर के पुजारी पर देवी का अवतरण होता था। और वह मंदिर का पुजारी, जब देवी का अवतरण होता था, तो कई तरह की घोषणाएं करता था। वे सदा सच होती थीं। कुछ लोग डेलफी के मंदिर गए थे। जो भी लोग पूछते थे देवी की आविष्ट अवस्था में, पुजारी उत्तर देता था। किसी ने यह पूछ लिया कि यूनान में सबसे बड़ा ज्ञानी कौन है? तो पुजारी ने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है! सुकरात परम ज्ञानी है।
वे लोग डेलफी के मंदिर से वापस आए। उन्होंने सुकरात से कहा कि डेलफी के पुजारी ने देवी की आविष्ट दशा में घोषणा की है कि तुम सबसे बड़े ज्ञानी हो।
सुकरात ने कहा, कहीं जरूर कुछ भूल हो गई होगी। तुम वापस जाओ और पुजारी को कहो कि सुकरात तो स्वयं कहता है कि मुझसे बड़ा अज्ञानी और कोई भी नहीं; मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
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