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________________ मेरे तीन नवजाने: प्रेम और अन अति और अंतिम होना 7 परमात्मा है तो मुझसे ऊपर कुछ है । अहंकार इनकार करता है परमात्मा का । अहंकार और परमात्मा के बीच गहन संघर्ष है। या तो तुम अहंकार को बचा लो, और या तुम परमात्मा को पा लो। दोनों तुम एक साथ न कर सकोगे । और वैसी करने की कोशिश की तो सिर्फ विक्षिप्त हो जाओगे, विमुक्त नहीं। लाओत्से इन सूत्रों में बड़ी गहन बातें कह रहा है। पहली गहन बात तो वह यह कह रहा है कि 'सब संसार कहता है कि मेरा उपदेश (ताओ) मूढ़ता से बहुत मिलता-जुलता है। क्योंकि यह महान है, इसलिए यह मूढ़ता से मिलता-जुलता है।' क्षुद्र को तुम पहचानते हो । महान से तुम्हारा कोई परिचय नहीं । क्षुद्र की ही तुम्हारी भाषा है। महान के साथ तुम्हारी भाषा एकदम अड़चन में पड़ जाती है। या तो तुम मौन हो जाओ तो महान तुम्हारे भीतर छा जाए, थोड़ा सा स्वाद तुम्हारी छाती में लगे। अगर तुम बोलते ही चले जाओ तो महान की जो भी चर्चा है वह मूढ़ता जैसी मालूम पड़ेगी। इसलिए परम ज्ञानी अक्सर पागल मालूम हुए हैं। और तुम्हारी भीड़ है। अगर तुम ही तय करने वाले हो तो एक ज्ञानी की कौन सुनेगा ? तुम सब मताधिकारी हो। तुम मत डाल सकते हो, वोट डाल सकते हो, और तय कर सकते हो कि यह आदमी पागल है। क्योंकि यह जो बातें कह रहा है वे तुम्हारे मन से बड़ी हैं। या तो तुम मन को छोड़ने को राजी होओ तो इन बातें को समझ लो । अगर तुम मन को ही पकड़ते हो तो ये बातें इतनी बड़ी हैं। यह ऐसे ही है जैसे कोई चुल्लू में सागर को भरने की कोशिश कर रहा हो, या कोई मुट्ठी में आकाश को पकड़ने निकला हो, और न पकड़ पाए तो कहे कि आकाश है ही नहीं। महान बातों की एक कठिनाई है कि महान बातें विरोधाभासी होती हैं, पैराडाक्सिकल होती हैं। क्षुद्र बातें तर्कयुक्त होती हैं। क्षुद्र बातों का तर्क बिलकुल सीधा-साफ होता है। जितनी विराट होने लगती है बात उतनी ही अ होने लगती है। क्योंकि विराट अतर्क्य है। सामान्य जीवन में रात अलग है, दिन अलग है; जन्म अलग है, मृत्यु अलग है। विराट में तो दोनों इकट्ठे हैं; जन्म भी उसी में, मृत्यु भी उसी में। वहां तुम जन्म और मृत्यु को अलग-अलग न रख पाओगे। वहां तुम्हारे खंड करने की जो बुद्धिमत्ता है वह व्यर्थ हो जाएगी। वहां तो अखंड का निवास है। वहां तो मृत्यु में जन्म छिपा है, जन्म में मृत्यु छिपी है। वहां तो मृत्यु भी जन्म का एक चेहरा है, और जन्म भी मृत्यु का एक ढंग है, वेश है। वहां तो सब विरोध गिर जाते हैं। और जहां विरोध गिर जाते हैं वहां मुश्किल हो जाती है। उपनिषद कहते हैं, ईश्वर पास से भी पास, दूर से भी दूर । तुम कहोगे, यह पागलपन की बात है। या तो पास, या दूर, समझ में आता है। अगर दूर है तो कहो दूर, अगर पास है तो कहो पास। लेकिन तुम दोनों कहते हो, पास से भी पास, दूर से भी दूर। तो जो तर्कनिष्ठ मन है वह दुविधा में पड़ जाता है। करो क्या ? तर्कनिष्ठ मन कहता है, जो चीज दूर होती है वह दूर होती है, जो पास होती है वह पास होती है। और दोनों तो कैसे हो सकती है ? लेकिन परमात्मा ऐसा ही है, पास से भी पास, दूर से भी दूर । और जिन्होंने जाना है, उनकी मजबूरी है। वे भी चाहते हैं कि तुम्हारी भाषा में बोल दें, लेकिन तब जो वे बोलते हैं वह परमात्मा के प्रति अन्याय हो जाता है। अगर तुम्हारी भाषा में बोलें तो परमात्मा के प्रति अन्याय होता है। अगर परमात्मा जैसा है वैसा ही बोलें, तुम्हारी भाषा के कटघरे टूट जाते हैं। उपनिषद ठीक ही कहते हैं। क्योंकि वह पास से भी पास है। उससे ज्यादा पास कोई भी नहीं। तुम भी अपने उतने पास नहीं जितने वह तुम्हारे पास है। क्योंकि तुम्हारे हृदय की धड़कन वही है। कबीर ने कहा है, सब सांसों की सांस में, तेरा साईं तुज्झ में। वह तुझमें ही छिपा है । अगर ठीक से कहें तो तेरा होना उस साईं का ही होना है । दूरी तो दूर, पास कहना भी बहुत दूर कहना है। पास भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि पास में भी थोड़ी तो दूरी होती ही है।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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