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मेरे तीन वजाबेः प्रेम और अब-अति और अंतिम ठोबा
परमात्मा के नक्शे कभी भी न बनाए जा सकेंगे। क्योंकि वह कोई जड़ वस्तु नहीं है; गत्यात्मक है, प्रतिपल रूपांतरित हो रहा है, प्रतिपल पूर्ण से पूर्णतर की तरफ जा रहा है। तो केवल साहसी ही आ सकते हैं इस अभियान में। तो फिर तुम क्या करोगे अपने भय को? अपनी कायरता को कैसे छिपाओगे? क्योंकि यह स्वीकार करने से भी पीड़ा होती है कि मैं कायर हूं। यह स्वीकार करने से भी अहंकार को बड़ी चोट पहुंचती है कि मैं अज्ञानी हूं। .. इसलिए जो भी ज्ञान का संदेश लेकर तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है वह तुम्हारे अहंकार पर चोट करता है। जो भी तुम्हारे पास लेकर आता है ज्ञान बांटने को वही तुम्हें दुश्मन जैसा मालूम पड़ता है। क्योंकि अगर तुम ज्ञान लेते हो तो तुम अज्ञानी थे। अगर तुम उसका निमंत्रण स्वीकार करते हो तो अब तक तुमने जो यात्राएं की वे व्यर्थ ही गईं, उनमें कोई भी तीर्थयात्रा न थी; अब तक तुम भटके। अगर तुम गुरु को स्वीकार करते हो तो उस स्वीकार में यह छिपा है कि अनंत-अनंत जन्मों तक तुमने जो यात्रा की वह तुम्हारी भटकन थी, भटकाव था। गुरु को स्वीकार करने का अर्थ है : जन्मों-जन्मों के अहंकार को छोड़ देना। - बहुत कठिन है। अहंकार तर्क खोजता है। अहंकार कहता है, यह आदमी मूढ़ मालूम होता है।
मैंने सुना है, एक सूफी कथा है कि एक आदमी परम गुरु की तलाश में था। बीस वर्षों तक उसने खोज की। न मालूम कितने गुरुओं के पास गया। लेकिन कुछ न कुछ भूल उसने निकाल ही ली। गुरु में कुछ न कुछ कमी मालूम पड़ी। कोई गुरु हंसता हुआ मिला। तो उसने सोचा, यह भी कोई गुरु हो सकता है। गुरु तो गंभीर होते हैं। हमारे पास शब्द है : गुरु-गंभीरता। उसने कहा, यह भी कोई गुरु हो सकता है; संसारियों जैसा हंस रहा है! और गुरु मिले जो बिलकुल उदासीन थे, उदास थे। उसने कहा, यह भी कोई गुरु है जिसके चेहरे पर आनंद की जरा भी झलक नहीं! ऐसा हर जगह उसने कुछ न कुछ खोज लिया। कोई गुरु उपवास करता था। तो उसने सोचा, यह तो आत्मघात है।
और कोई गुरु ठीक से खाता-पीता था। तो उसने कहा, यह तो निपट भोगी है। बीस वर्ष अनेकों गुरुओं के पास गया, लेकिन परम गुरु, परफेक्ट मास्टर, नहीं मिल सका।
बीस साल बाद थक गया। मौत भी करीब आने लगी। इसलिए मापदंड उसने थोड़े शिथिल कर लिए, कि अब तो मरने के करीब आ रहा हूं, अब तो थोड़ा कमोबेश भी मिल जाए, अठारह-उन्नीस भी चलेगा। न हुआ बीस, लेकिन अब मौत करीब आ रही है। तो जब उसने अपने मापदंड थोड़े शिथिल किए, एक गुरु मिल गया, जो उसे लगा कि परिपूर्ण है। सब तरफ से जांच-परख करके उसने भरोसा कर लिया।
एक दिन सुबह जाकर गुरु के चरणों में उसने निवेदन किया कि मैं परम गुरु की तलाश में था; बीस साल भटका; अंततः आप मिल गए; मेरी यात्रा पूरी हुई। क्या आप परम गुरु हैं? गुरु ने कहा, अगर मैं कहूं हूं, तो वही कारण बन जाएगा मेरे परम गुरु न होने का; अगर मैं कहूं नहीं हूं, तो जब मैं खुद ही कह रहा हूं कि नहीं हूं तो सवाल ही कहां उठता है। लेकिन अब तुमने पूछ ही लिया है तो मुझे तो पता नहीं कि मैं परम गुरु हूं या नहीं, लेकिन ऐसी मेरी ख्याति है; लोग कहते हैं। ऐसा लोग कहते हैं कि यह परम गुरु है। तो उसने कहा, ठीक, अब मैं भी थक गया हूं खोजते-खोजते, और आप ने भी मुझे डरा दिया। लेकिन अब बहुत हो गई खोज, अब मौत करीब आती है, तो मैं तो स्वीकार करने को राजी हूं। मैं परम गुरु की तलाश में था, आप मिल गए, मुझे शिष्य की तरह स्वीकार कर लें।
उस गुरु ने कहा, यह जरा मुश्किल है। शिष्य ने कहा, क्यों मुश्किल है? मैं मरने के करीब आ गया। तुम्हारी मृत्यु से मेरा क्या लेना-देना, मैं परम शिष्य की तलाश में हं।।
अहंकार के बड़े रंग हैं, बड़े रूप हैं। और अहंकार हर जगह भूल-चूक खोज ही लेता है। अहंकार भूल-चूक खोजता है, उसका भीतरी अचेतन कारण है : अपने लिए सांत्वना खोजना। तुम डरते हो कि अगर गुरु मिल ही गया,