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________________ 127 U हला प्रश्न: आपको देख कर मेरे मन में भाव उठता है कि मैं भी आप जैसी ऊंचाई को कभी छुऊं। क्या यह भी तुलना हैं? हीनता की ग्रंथि का परिणाम है? दूसरे जैसे होने की आकांक्षा हीनता से ही जन्म पाती है; अपने जैसे होने की आकांक्षा आत्म- गरिमा से पैदा होती है। दूसरे जैसे तुम होना भी चाहो तो हो न सकोगे। कोई उपाय नहीं है। उस चेष्टा में तुम नष्ट ही होओगे। और जितने ही तुम नष्ट होओगे उतनी ही हीनता भरती जाएगी। जितनी हीनता होगी उतना तुम और दूसरे जैसे होना चाहोगे। एक दुष्टचक्र में फंस जाओगे । दूसरे को प्रेम करो, श्रद्धा करो, सम्मान करो; लेकिन होना तो सदा अपने ही जैसे चाहो । क्योंकि अन्यथा कोई गति नहीं है। तुम जैसा न कभी कोई हुआ है, न कभी कोई होगा। तुम बेजोड़ हो । और जब तक तुम अपने भीतर छिपे बीज को ही वृक्ष न बना लोगे तब तक कोई संतृप्ति नहीं होगी। तुम्हारी नियति पूरी होनी चाहिए। तुम मेरे जैसे होने को पैदा नहीं हुए हो। तुम किसी दूसरे जैसे होने को पैदा नहीं हुए हो। तुम तो बस तुम ही होने को पैदा हुए हो। बहुत से आकर्षण आएंगे जीवन में, लेकिन उन आकर्षणों को समझना, सीखना, लेकिन उन जैसे होने की कोशिश मत करना। उन सब आकर्षणों को, श्रद्धाओं को, प्रेमों को आत्मसात कर लेना, लेकिन बनना तो तुम तुम जैसे ही। रिझाई का गुरु मर गया था तो लोगों में बड़ी चर्चा थी । और रिंझाई को उत्तराधिकारी बना गया था गुरु । और रिझाई गुरु जैसा बिलकुल नहीं था । एक दिन लोग इकट्ठे हुए, और उन्होंने कहा कि तुम तो अपने गुरु जैसे बिलकुल ही नहीं हो । न तुम्हारा व्यवहार वैसा है, न तुम्हारा आचार वैसा है, तो तुम कैसे उत्तराधिकारी हो ? और किस आधार पर तुम्हें गुरु ने उत्तराधिकार दिया, यह हमारी समझ के बाहर है। तो रिझाई ने कहा, मेरे गुरु भी उनके गुरु जैसे नहीं थे, और मैं भी उन जैसा नहीं हूं। यही मेरे शिष्यत्व का अधिकार है। न मेरे गुरु किसी जैसे थे और न मैं अपने गुरु जैसा हूं। यही मेरे और मेरे गुरु में समानता है । यहीं से हम जुड़े हैं। इसलिए अपने जैसे शिष्यों को तो उन्होंने चुना नहीं; मुझे चुना है। क्योंकि उनके जैसे जो शिष्य हो गए थे वे तो नकली हो गए, वे कार्बन कापी हो गए। उनकी प्रामाणिकता खो गई। उनकी अपनी कोई आत्मा न रही। वे थोड़े उधार हो गए। उनका जीवन बाहर से नियंत्रित हो गया। किसी दूसरे की प्रतिमा के अनुसार उन्होंने अपना आयोजन कर लिया। उनका जीवन भीतर से नहीं फूटा; उन्होंने जीवन को बाहर से सीख लिया। वह अभिनय है; वह जीवन की वास्तविक खिलावट नहीं है। आत्मा भीतर से बाहर की तरफ खुलती है; अनुकरण बाहर से भीतर की तरफ जाता है। अनुकरण तुम्हें नकली बना देगा। इसलिए बड़ी नाजुक बात है । और सब सीखना, नकल मत सीखना। हालांकि नकल सरल है, और सब
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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