________________
असंघर्ष: साना अस्तित्व सहोदर
101
'पुरातन का भी।'
और प्राचीन में, प्रारंभ में जहां तुम थे, जिस परम आनंद में, वह भी इसी के आस-पास है। प्रारंभ भी इसी के आस-पास अंत भी इसी के आस-पास । प्रेम के आस-पास सारी यात्रा है। प्रेम उपलब्धि है और प्रेम ही प्रस्थान । प्रेम ही पहला कदम है और प्रेम ही अंतिम मंजिल । लेकिन प्रेम को पाना हो तो असंघर्ष का जीवन चाहिए । महावीर इस जीवन को अहिंसा का जीवन कहते हैं; बुद्ध करुणा का जीवन कहते हैं; जीसस प्रेम का जीवन कहते हैं; मोहम्मद प्रार्थना का जीवन कहते हैं। पर बात वही है, सार प्रेम है। और प्रेम तभी उदय होगा, तभी फूटेगा बीज प्रेम का, जब तुम असंघर्ष की भूमि को निर्मित कर पाओगे ।
अन्यथा प्रेम का बीज न फूटेगा । लड़ने की वृत्ति से भरे तुम कैसे प्रेम कर पाओगे ? लड़ने को आतुर, तो प्रेम भी घृणा हो जाएगा, और प्रेम भी विषाक्त हो जाएगा। लड़ने को आतुर तुम्हारा ध्यान भी क्रोध हो जाएगा। तभी तो दुर्वासा ऋषि जैसे लोग पैदा होते हैं। लड़ने को आतुर, तो ध्यान भी क्रोध हो जाता है। और जहां वरदान बरसते, वहां से अभिशाप का जहर बहने लगता है।
संक्षिप्त में : प्रेम है प्रारंभ, प्रेम है अंत । असंघर्ष की चाहिए भूमि; उसमें प्रेम के बीज को पल्लवित होने दो। उसी में प्रार्थना के फूल लगेंगे और उसी में परमात्मा के फल और फलों से ही वृक्ष पहचाने जाते हैं। जब तक तुम परमात्मा को न पा लो तब तक तुम पहचाने न जा सकोगे कि तुम कौन हो ।
लोग मुझसे पूछते हैं कि हम जानना चाहते हैं हम कौन हैं।
तुम तब तक न जान सकोगे जब तक तुम पूर्ण न हो जाओ, जब तक तुम अपनी नियति को न पा लो । कैसे 'कोई वृक्ष जानेगा वह कौन है, जब तक बीज वृक्ष न बन जाए, फूल न लग जाएं, फल न लग जाएं। गंगोत्री में गंगा अपने को नहीं पहचान पाएगी। वह पहचान तो होगी अंत में, जहां विराट हो जाएगा रूप, मिलन होगा सागर से ।
'दि ब्रेव सोल्जर इज़ नाट वायलेंट । दि गुड फाइटर डज नाट लूज हिज टेम्पर । दि ग्रेट कांकरर डज नाट फाइट ऑन स्माल इसूज। दि गुड यूजर ऑफ मेन प्लेसेज हिमसेल्फ बिलो अदर्स । दिस इज़ दि वर्चू ऑफ नान - कंटेंडिंग; इज़ कॉल्ड दि कैपेसिटी टु यूज मेन; इज़ रीचिंग टु दि हाइट ऑफ बीइंग; मेटेड टु हेवन, टु व्हाट वाज़ ऑफ ओल्ड।'
आज इतना ही ।