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वे वही सीखते हैं जो अनसीखा हैं
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मन होने लगता है। और जब पहुंच ही गए तो अब जल्दी क्या है ? और जिसने भी यह भूल की, उसकी सारी की सारी चेष्टा व्यर्थ हो जाती है, पानी फिर जाता है। और तुममें से बहुतों को मैंने बहुत बार उस मंजिल के करीब पहुंचते देखा है। और फिर यह भी देखा है कि तुम सुस्ताने लगे। और फिर यह भी देखा है कि तुम वापस अपने घर के द्वार पर खड़े हो ।
आखिरी कदम किसी भी क्षण पहला कदम बन सकता है, जैसे कि पहला कदम आखिरी बन सकता है। जरा तुम थके, जरा तुम्हें आलस्य पकड़ा, जरा तुमने कहा कि दो क्षण आंख बंद कर लें और विश्राम कर लें । विश्राम कि बात से ? विश्राम का अर्थ इस यात्रा में है, थोड़ी देर मूच्छित हो जाएं। होश तो यात्रा के कदम हैं; बेहोशी सुस्ताना है। थोड़ा बेहोश हो लें, अब क्या डर है? जरा सी बेहोशी, और मंजिल उतनी ही दूर हो जाती है जितनी कभी थी ।
दूसरा खतरा है - जो और भी सूक्ष्म और बारीक है-और वह खतरा यह है कि जैसे ही मंजिल सामने आती है, बड़े आनंद से, बड़े पुलक से तन-प्राण भर जाता है। सब तरफ अनाहत का नाद गूंजने लगता है। ऐसा आनंद तुमने कभी जाना न था । बिन घन परत फुहार । तुम भीग भीग जाते हो। तुम्हारा रोआं रोआं सरोबोर हो जाता है। तुम्हारे हृदय की धड़कन धड़कन में एक नया संगीत आ जाता है। आंख खोलते हो तो रहस्य; आंख बंद करते हो तो रहस्य; जहां देखते हो वहां रहस्य । आश्चर्यचकित, आत्मविभोर, अवाक तुम खड़े रह जाते हो। इस घड़ी में दो संभावनाएं हैं।
एक संभावना तो है कि यह आनंद इसलिए हो रहा है कि तुम निकट पहुंच गए स्वभाव के । यह स्वाभाविक है । और अगर यह आनंद स्वभाव के निकट पहुंचने से फलित हो रहा है तो यह जो उत्सव का वाद्य बजने लगा तुम्हारे भीतर और ये जो फूल खिलने लगे, और ये जो हजार-हजार राग-रागिनियां प्रकट हो गईं, और यह जो धीमा, शीतल प्रकाश तुम्हारे चारों तरफ बरसने लगा, और ये जो करोड़ करोड़ दीए जल गए, यह सब शुभ है और इनके जलने से तुम और करीब आओगे, यह द्वार पर तुम्हारा स्वागत है। बहुत दिन का भटका हुआ कोई वापस लौट आया है घर; सारा अस्तित्व उसके स्वागत में वंदनवार सजाता है। अगर यह उत्सव स्वभाव के निकट आने का है तो तुम्हारी जो आखिरी अस्मिता बची रह गई होगी वह भी यहां आकर पिघल जाएगी - इस उत्सव की ऊष्मा में। इस उत्सव की गर्मी में तुम्हारी आखिरी लकीर जो थोड़ी-बहुत मैं-भाव की बची रही होगी, आत्मबोध जो थोड़ा-बहुत बचा रहा होगा कि मैं हूं - कितना ही शुद्ध, लेकिन मैं हूं तो अशुद्ध ही है-वह लकीर भी पिघल जाएगी इस उत्सव में । इस उत्सव हिस्से हो जाओगे । तरंग खो जाएगी, सागर बचेगा। यह तो ठीक है ।
में
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लेकिन खतरा भी यहीं है। अगर कहीं तुमने ऐसा समझा कि मैं पहुंच गया, मैंने पा लिया, कि तुम पहले कदम पर वापस फेंक दिए जाओगे। शायद पहले कदम से भी पीछे वापस फेंक दिए जाओगे ।
फर्क कहां है? फर्क बहुत बारीक है। ज्ञानी तो समझेगा इस क्षण में कि परमात्मा ने मुझे पा लिया, और अज्ञानी समझेगा कि मैंने परमात्मा को पा लिया। बस इतना ही फर्क है। ज्ञानी तो कहेगा कि आ गया घर, लीन होता हूं अब, डूबता हूं अब; अज्ञानी समझेगा, पा लिया आखिरी भी, अब पाने को कुछ न बचा; अब मेरा अहंकार अंतिम शिखर पर है। ज्ञानी तो पिघल जाएगा; क्योंकि परमात्मा ने मुझे पा लिया; उसकी अनुकंपा, उसका प्रसाद । जैसे छोटा बच्चा मां की गोद में सिर रख कर खो जाएगा, ऐसे ज्ञानी खो जाएगा। अज्ञानी अकड़ कर खड़ा हो जाएगा, और कहेगा कि मैंने परमात्मा को भी पा लिया ! जो बड़े-बड़े खोजी न पा सके, जहां बड़े-बड़े भटक गए, वहां भी मैं जीत गया ! अहंकार अपनी आखिरी भभक से उठेगा। और एक क्षण में तुम आखिरी शिखर से उतर आओगे आखिरी गर्त में ।
और दोनों एक जैसे लगते हैं। एंफेसिस, जोर का फर्क है। ज्ञानी कहता है, परमात्मा ने पा लिया मुझे; जोर परमात्मा पर है। अज्ञानी कहता है, मैंने पा लिया परमात्मा को; जोर मैं पर है। ज्ञानी इस महोत्सव में लीन हो जाता है;