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________________ जो प्रारंभ हुँ वही अंत है भरोसा नहीं है भविष्य का। कसम लेते हो समाज के सामने, ताकि लोग भी ध्यान रखें। कसम लेते हो दूसरों के सामने, ताकि दूसरे के सामने प्रतिबद्ध हो जाने के कारण अहंकार का सवाल अड़ जाए। फिर तुम्हारा अहंकार ही रोकेगा कि इतने लोगों के सामने कसम ली, अब तोड़ें कैसे? तुम अहंकार के माध्यम से अपनी आदतों को बदलना चाहते हो! और अहंकार तो सबसे बुरी और बड़ी से बड़ी खतरनाक आदत है। सिगरेट पीते हुए शायद तुम मोक्ष में चले भी जाओ, क्योंकि मैंने कभी नहीं सुना कि कोई सिगरेट पीने पर मोक्ष के द्वार पर कोई बाधा हो, कि धूम्रपान वर्जित है ऐसा लिखा हो। लेकिन अहंकार लेकर तुम मोक्ष में कभी भी न जा सकोगे। जब तुम अहंकार को लड़ाते हो आदत के खिलाफ तभी तुम भूल कर रहे हो। तब तुम योद्धा की भूल कर रहे हो। अहंकार तो और भी खतरनाक आदत है। तब तो तुम बीमारी का इलाज जो कर रहे हो, वह बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक है। उससे तो बीमारी बेहतर थी; इतनी बुरी न थी। बीमारी से बच भी जाते, औषधि से न बच सकोगे। आत्मा को जगाओ। अहंकार को खड़ा मत करो। समस्याओं को हल करना हो तो कसमें खाकर नहीं, बोध को जगा कर। कसमें खाना भी लड़ने की ही तरकीब है। लड़ कर कभी कोई नहीं जीता। जान कर लोग जीते हैं। और जो ज्ञान से ही हो जाता हो उसके लिए लड़ने की, जद्दोजहद की, व्यर्थ के संघर्ष की क्यों आयोजना करते हो? तो पहली तो भूल होती है टालने की। फिर दूसरी भूल होती है लड़ने की। लड़ने का परिणाम इतना ही हो सकता है कि अगर तुम बहुत जिद्दी हो तो जो आदत तुम्हारे ऊपर थी उसे तुम अचेतन में दबा दो; जो क्रोध बाहर निकलता था उसे तुम भीतर पी जाओ। क्रोध बाहर निकल जाता तो तुम्हारा संयंत्र मुक्त हो जाता उससे, हलके हो जाते। भीतर ले जाकर तो जहर इकट्ठा होता जाएगा। तुम मवाद इकट्ठी कर रहे हो। तुम फोड़े को मिटा नहीं रहे हो, ऊपर से पट्टियां बांध कर फूल लगा रहे हो। तुम भीतर विस्फोटक होते जाओगे। तुम एक ज्वालामुखी हो जाओगे, जो कभी भी फूट सकता है। और तुम्हारे हर कृत्य में, तुमने जो-जो दबाया है, उसकी छाप पड़ने लगेगी। तुम उठोगे तो क्रोध से, बैठोगे क्रोध से, चलोगे क्रोध से, बोलोगे क्रोध से। अकारण ही तुम क्रोधित होने लगोगे। यही तो पागलपन है: कोई ऐसा काम करना जो अकारण था, जिसकी कोई जरूरत ही न थी, जिसके लिए बाहर कोई भी कारण मौजूद न थे। ऐसा कोई काम करना ही तो पागलपन है। होश और पागलपन में फर्क क्या है? होश और पागलपन में फर्क यह है कि तुम्हें किसी ने पुकारा तो तुम बोले, अगर पुकारने वाला है तब तो होश, और पुकारने वाला है ही नहीं, पुकार तुमने ही सुनी, तो पागलपन। तब तुम बिना कारण बाहर के खोजे अपने भीतर के ही कारणों से जीने लगते हो। बाहर किसी ने गाली दी तब तो ठीक कि तुम क्रोधित हो जाओ। लेकिन कोई गाली दिया ही नहीं है और तुम क्रोधित हो जाते हो, जैसे तुम प्रतीक्षा कर रहे थे कि कोई गाली दे, तो तुम व्याख्या कर लेते हो कि जरूर गाली दी गई है। गाली न भी दी गई हो तो तुम समझ लेते हो कि भाव-भंगिमा से पता चलती थी कि गाली वह आदमी देना चाहता था, कि वह छिपा रहा था, कि वह धोखा दे रहा था, लेकिन गाली वह देना चाहता था, कि उसके ओंठों में लिखी थी, कि उसकी आंख कह रही थी, कि वह आदमी ही ऐसा है, हम उसे जानते हैं, उसके देने की जरूरत ही नहीं है, बिना दिए हम पहचानते हैं कि वह गाली देने ही आया था। तुम व्याख्या करने लगोगे। भीतर के क्रोध को निकालने के लिए कोई न कोई उपाय खोजने पड़ेंगे। और जितना तुम दबाओगे उतने तुम रुग्ण होते जाओगे। जितने तुम रुग्ण होओगे उतने ही जीवन के इस महा उत्सव में तुम्हारा सम्मिलित होना असंभव हो जाएगा। और तुम्हारे अधिक साधु यही कर रहे हैं। वे दबा रहे हैं, और दबा कर सोचते हैं परमात्मा से मिल सकेंगे। और जिसने जितने रोग दबा लिए उतना ही परमात्मा से दूर हो जाता है। 365
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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