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स्वादहीन का स्वाद लो
विचार के लिए कीमत चुकानी पड़ रही है। तुम ऐसा मत समझना कि मुफ्त सपने देख रहे हो। मुफ्त तो इस संसार में कुछ भी नहीं है। मुफ्त तो कुछ हो ही नहीं सकता; जो भी है, उसे तुम्हें चुकाना पड़ रहा है। तुम विचार कर रहे हो; तुम्हारी ऊर्जा खो रही है। वह एक छिद्र है। तुम व्यर्थ कुछ बात कर रहे हो; ऊर्जा खो रही है। तुम व्यर्थ सुन रहो हो; ऊर्जा खो रही है। तुम व्यर्थ देख रहे हो; ऊर्जा खो रही है। एक हाथ भी तुमने हिलाया तो मुफ्त तो नहीं हिला सकते; उतनी ऊर्जा गई, उतना जीवन व्यय हुआ।
संयम का यही अर्थ है। संयम का अर्थ है : जो अपरिहार्य है उसके साथ जीना; और जो काटा जा सकता है उसे काट देना। संयम ऐसा है जैसे कोई आदमी पोस्ट आफिस जाता है तार करने, तो देखता है, कितने शब्द काटे जा सकते हैं। फिर-फिर काटता है। दस, नौ-दस शब्दों के भीतर में ले आता है। यही आदमी पत्र लिखे तो चार पन्ने लिखता है। और कभी तुमने खयाल किया, चार पन्ने जो नहीं कह सकते, वह एक तार कहता है।
ज्ञानी कम करता है, लेकिन उससे बहुत होता है। वह टेलीग्रैफिक है। वह बहुत न्यूनतम करता है, लेकिन विराटतम उससे फलित होता है। क्योंकि व्यर्थ उसने काट दिया है; सार्थक को बचा लिया है। तार की भाषा है ज्ञानी। दस शब्दों में, जो जरूरी है, जो एकदम जरूरी है, वही उसके जीवन से प्रकट होता है।
जीवन को टेलीग्रैफिक बनाओ। जितना-जितना व्यर्थ पाओ, हटा दो। तभी तुम्हारी मूर्ति निखरेगी। तभी तुम्हारे भीतर ऊर्जस्वी आत्मा का जन्म होगा। तुम आत्मवान बनोगे। तभी तुम पाओगे कि तुम शक्तिशाली हो। अन्यथा तुम हमेशा निर्बल रहोगे।
निर्बल तुम इसलिए नहीं हो कि निर्बल तुम पैदा किए गए हो; निर्बल इसलिए हो कि तुम अपनी ऊर्जा को व्यर्थ छिद्रों से खोए डाल रहे हो। और तुम भी भलीभांति जानते हो। बहुत बार तुम्हें समझ में भी आता है। बस पुरानी लत है, पुरानी आदत है; किए चले जाते हो।
बुद्ध के सामने एक आदमी बैठा था और बैठा-बैठा अपना पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध ने पूछा कि मेरे भाई, यह क्या कर रहे हो? बीच वचन तोड़ कर बोल रहे थे, प्रवचन तोड़ कर बीच में कहा कि यह क्या कर रहे हो? यह अंगूठा क्यों हिलता है? • वह आदमी थोड़ा घबड़ा गया। और जैसे ही बुद्ध ने पूछा, अंगूठा रुक गया। क्योंकि वह हिलता था बेहोशी में, होश आ गया। कोई काम तो था नहीं अंगूठा हिलाने का। उस आदमी ने कहा कि आप भी खूब हैं! आप अपना प्रवचन दें, मेरे अंगूठे से क्या लेना-देना? और इतना महत्व क्या अंगूठे का?
. बुद्ध ने कहा कि अगर तुम्हें यही पता नहीं कि तुम्हारा अंगूठा हिल रहा है, क्यों हिल रहा है, तो मैं बेकार ही प्रवचन दे रहा हूं। तुम समझोगे क्या खाक! जिसमें इतनी भी बुद्धि नहीं कि बिना कारण अंगूठा न हिलाए, वह क्या समझेगा? और फिर तुमने रोका क्यों? जब तक तुम साफ-साफ न बताओगे, मैं आगे न बढुंगा। मेरे कहते ही अंगूठा रुका क्यों? उस आदमी ने कहा, आप भी खूब हैं! मुझे पता ही नहीं था कि अंगूठा हिल रहा है; आपने कहा, तभी मुझे पता चला। बुद्ध ने कहा, यह भी खूब रही। तुम्हारा अंगूठा; हम बताएं, तब तुम्हें पता चले!
इतनी मूर्छा में जीओगे और फिर रोओगे कि जीवन में कुछ मिल नहीं रहा है। अपने ही हाथों से खोओगे, और तुम्हें पता भी न चलेगा कि तुमने कैसे खो दिया है। और फिर भी आदमी अपने को होश में समझता है, जागा हुआ समझता है।
तुम भी जरा गौर से देखना। हजार अंगूठे हिल रहे हैं तुम्हारे; अकारण हिल रहे हैं। जैसे-जैसे तुम समझोगे वैसे-वैसे अंगूठे हिलने बंद हो जाएंगे। धीरे-धीरे एक शांत ऊर्जा घनीभूत होगी। तुम एक बादल हो जाओगे वर्षा के, जो भरा हुआ है, जो बरसने को तत्पर है।
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