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ताओ का स्वाद मादा है
चुक ही जाएगा। इस जगत में न चुकने वाला कुछ भी नहीं है। लेकिन भीतर के, ताओ के, धर्म के जगत में-अभिव्यक्ति को छोड़ दें, केंद्र के जगत में; परिधि से हट जाएं, मूल के जगत में सभी कुछ अनंत है; फिर उसे चुकाया नहीं जा सकता। उस आनंद को समाप्त नहीं किया जा सकता। फिर ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जहां हम कह सकें कि जो पाया था वह चुक गया। अनंत में हमारा प्रवेश है, अपने ही स्वभाव में डूबते अनंत से हमारा संबंध जुड़ जाता है।
यह भी कहना ठीक नहीं कि संबंध जुड़ जाता है; क्योंकि हम उससे जुड़े ही हुए हैं। पर हमारा ध्यान उस तरफ नहीं है। सारा उपद्रव एक ही बात में सीमित है कि हमारा ध्यान उस तरफ नहीं है जहां हमारा खजाना है। हमारा ध्यान उस तरफ है जहां हमारा खजाना नहीं है। तो हम चांद पर जाने की सोचते हैं, मंगल पर उतरने की सोचते हैं; अपने पर जाने की बिलकुल नहीं सोचते, अपने में उतरने की कभी भी नहीं सोचते। हमें खयाल है कि वह तो हम हैं ही। वहीं हमारी गहरी से गहरी भ्रांति है। तो हम भटकते हैं सब तरफ।
मैंने सुना है कि एक आदमी पहली दफा शिकार के लिए जंगल में जा रहा था। पहली दफा जा रहा था तो बहुत डरा हुआ भी था। सब इंतजाम कर रहा था। तो वह एक दुकान पर गया था जहां शिकार का सब सामान मिलता था। तो उसने सब चीजें खरीद ली; खास वेश-भूषा, जूते, और भी जो इंतजाम शिकार के लिए जरूरी था वह सब खरीद लिया। उसने एक कंपास भी खरीदा; कहीं भटक जाए घने जंगल में तो यात्रा का बोध हो सके, दिशा का पता चल सके, कहां है, कहां से आ रहा है। जब उसने कंपास का डब्बा खोला तो वह जरा सोच में पड़ गया। और सब चीजें तो ठीक थीं, एक चीज उसकी समझ में बिलकुल नहीं आती थी। कंपास में एक छोटा सा आईना भी रखा था। तो उसने दुकानदार को पूछा कि और सब तो ठीक है, लेकिन कंपास में आईने की क्या जरूरत? तो उस दुकानदार ने कहा कि इसमें देखने से आपको पता चल जाएगा कि कौन खो गया है। और तो सब दिशा वगैरह तो ठीक है, लेकिन इसका भी तो पता होना चाहिए कौन खो गया है। नहीं तो दिशा की जानकारी क्या करेगी?
वह शायद मजाक ही रही हो, पर गहरी मजाक है। आप भी खो गए हैं। और अक्सर आप पूछते हैं : दिशा, जीवन का लक्ष्य, उद्देश्य क्या है? मेरे पास लोग आते हैं, यह सवाल अक्सर लेकर आते हैं कि जीवन का उद्देश्य क्या है? लक्ष्य क्या है? हम कहां जा रहे हैं? कहां जाना चाहिए?
यह सब फिजूल बकवास है। पहले आईने में देखना चाहिए, कौन खो गया है? कहां जाना है, क्या होना है, यह तो पीछे की बात है, इसका तो पता चल जाएगा। किसको जाना है? अपना ही पता नहीं है और जीवन के लक्ष्य की चिंता होती है। मैं कौन है, इसका भी कोई.बोध नहीं है। मैं हूं भी या नहीं, इसका भी कोई अनुभव नहीं है।।
ताओ उस मूल की तरफ यात्रा है जहां मैं उससे परिचित हो जाऊं जो मैं हूं। उसके लिए जरूरी है कि मैं बाहर से संबंध बनाने के जितने मैंने उपाय किए हैं, जितने सेतु निर्मित किए हैं, जितने द्वार निर्मित किए हैं दूसरे से संबंधित होने के, वे सारे द्वार बंद कर दूं, ताकि मेरी ऊर्जा जो दूसरे की तरफ जाती है वह दूसरे की तरफ न जाए और मेरी तरफ आए। हम बोलते हैं, दूसरे से संबंधित होने के लिए; वाणी दूसरे से एक संबंध है। भाषा एक सेतु है। भाषा न हो तो दूसरे से हमारा कोई संबंध नहीं हो सकता। लेकिन भाषा दूसरे से सेतु है; अपने से संबंधित होने के लिए भाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। पर आंख बंद कर लें तो भी भाषा चलती ही चली जाती है। शब्द घूमते रहते हैं, विक्षिप्त की तरह शब्द घूमते रहते हैं। उनको बंद करना होगा। वे बंद हो जाएंगे तो अपने से संबंध होगा।
भाषा है दूसरे से संबंध का मार्ग; मौन है अपने से संबंध का मार्ग। आंखें दूसरे को देखने के लिए हैं; अपने को देखने के लिए आंखों की कोई जरूरत नहीं है। अंधा भी अपने को देख सकता है। अपने को देखने के लिए आंख का कोई लेना-देना नहीं है।