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ताओ का स्वाद सादा है
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आपका प्रेम, आपकी दोस्ती, आपके संबंध सब झूठ पर खड़े हैं। यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया भर के शिक्षक सत्य की शिक्षा दे रहे हैं और हमारी सारी जीवन-व्यवस्था असत्य पर खड़ी हुई है। और अगर हम चौबीस घंटे के लिए तय कर लें कि सत्य से जीएंगे तो या तो आपकी हत्या कर दी जाए, या आपको पागलखाने में बंद कर दिया जाए, या लोग आप पर हंसने लगें कि आपका दिमाग खराब हो गया है। ये भी उनकी व्यवस्थाएं हैं सुरक्षा की। ज़ब वे हंसेंगे कि आप पागल हो गए हैं तो वह आपको पागल नहीं कह रहे हैं, वे हंस कर अपनी सुरक्षा कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि इनकी बात को कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं है। वे यह कह रहे हैं कि जब आदमी पागल ही हो गया तो अब इससे कुछ आशा ही नहीं है; यह कुछ भी कह सकता है।
लाओत्से की साधना कठिन है। क्योंकि जैसे ही आप अपने स्वभाव में सरकना शुरू करेंगे, आप पाएंगे कि आपका सारा व्यक्तित्व झूठा है। जगह-जगह से आपको हटना पड़ेगा। आप मुस्कुराते झूठे हैं, आप रोते झूठे हैं।
मैं लोगों को देखता हूं, किसी के घर में कोई मर गया है, वे जाकर वहां ऐसी शक्ल बना लेते हैं एक क्षण में ! बाहर तक वे हंसते हुए सिगरेट पीते आ रहे थे; सिगरेट झड़ा कर वे एकदम, शक्ल उनकी बिलकुल उदास हो जाती है; भीतर जाकर वे उदासी की बातें कर लेते हैं; बाहर आकर फिर वे हंस रहे हैं, गपशप कर रहे हैं; सिनेमागृह की ओर जा रहे हैं। बीच में जैसा उन्होंने जो उदासी ओढ़ी थी वह जैसे कुछ बात ही न थी ।
आंसू निकाल लेते हैं लोग झूठे; मुस्कुरा लेते हैं। वह सब चिपकाई हुई मुस्कुराहट है, ऊपर से पेंट की हुई । फिर धीरे-धीरे वे भूल ही जाते हैं कि असली मुस्कुराहट क्या है । इतना अभ्यास हो जाता है झूठी मुस्कुराहट का कि जब असली भी आना चाहिए तो झूठी आ जाती है। वह अभ्यास का हिस्सा हो जाती है। आंसू जब असली भी आना चाहिए तब भी उनको पता नहीं चलता कि असली कहां से लाएं; क्योंकि नकली के लाने की धारा, आदत, यांत्रिक आदत बन गई होती है। इस पर थोड़ा विचार करें तो आपको खयाल में आएगा कि लाओत्से की साधना अति जटिल होगी, कठिन होगी, महातप होगी।
'महान प्रतीक को धारण करो, और समस्त संसार अनुगमन करता है।'
लेकिन उसके अंतिम परिणाम अभूतपूर्व हैं, अदभुत हैं। एक बार कोई व्यक्ति अपने स्वभाव में उतरने लगे तो पहली घटना तो यह होगी कि सारे लोग उसके विपरीत हो जाएंगे। कारण ? क्योंकि आप झूठ हुए ही इसलिए हैं, ताकि कोई आपके विपरीत न हो जाए। इसे थोड़ा समझ लें।
आपने सारा ढांचा झूठा इसलिए खड़ा किया है कि सबसे बनी रहे; कहीं कुछ बिगाड़ न हो जाए। सबसे बनाए रखने में आपने अपने से बिगाड़ कर लिया है। सबको सम्हालने में, पता नहीं सब सम्हले हैं या नहीं सम्हले, आप जरूर बिलकुल असंतुलित हो गए हैं। आप सम्हले हुए नहीं रहे हैं। सब प्रसन्न रहें आपके आस-पास, सब खुश रहें; हालांकि कोई खुश नहीं है आपके आस-पास; लेकिन इस चेष्टा में एक बात जरूर घटी है कि आप स्वाभाविक नहीं रह गए हैं। और बिना स्वभाविक हुए कोई प्रसन्न नहीं हो सकता । प्रसन्नता स्वभाव के साथ मेल से पैदा होती है; प्रफुल्लता स्वभाव के साथ एकतान होने से पैदा होती है।
तो जैसे ही आप स्वाभाविक होने की कोशिश करेंगे वैसे ही आप पाएंगे कि जहां-जहां आपने ताने-बाने बुने थे— सबको सम्हालने के थे- वे सब टूटने लगे, वे सब शिथिल होने लगे। जिस-जिस को सम्हाला था वह दूर हटने लगा। वह सम्हालना भी सिर्फ कामचलाऊ था, उससे काम चलता था; कुछ सम्हला नहीं था ।
स्वभाव के प्रतीक को जैसे ही कोई धारण करेगा, पहला तो परिणाम यह होगा कि लोग उसके विपरीत होने लगेंगे। अगर वह डर गया तो वापस अपनी खोल को ओढ़ लेगा। अगर नहीं डरा और स्वभाव में चलता ही चला गया तो यह विरोध ज्यादा दिन नहीं टिकेगा। यह विरोध तो उसकी पुरानी झूठ के कारण पैदा हो रहा है। जैसे-जैसे