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________________ स्वयं का ज्ञान ही ज्ञान है 37 उसका ध्यान ही गलत है। सुख की जहां कामना है वहां संतोष हो ही नहीं सकता। संतोष का मतलब ही यह है कि सुख की हमारी कोई मांग नहीं है। संतोष का मतलब यह है कि जो हमारे पास है उसमें सुख भोगने की कला हम जानते हैं। इसको फर्क को समझ लें । संतोष का मतलब है सुख की कला; जहां भी हम हैं, जो भी हमारे पास है, उसमें 'सुख लेने की कला। इपीकुरस यूनान का सबसे बड़ा भौतिकवादी दार्शनिक हुआ, ठीक चार्वाक जैसा । पर न तो चार्वाक को लोग समझ पाए अब तक और न इपीकुरस को समझ पाए। इपीकुरस कहता है कि सुखी रहो। हमें लगता है कि भोगवादी है । पर इपीकर कुछ बात ही बड़ी गजब की कह रहा है। वह यह कह रहा है कि जो भी है उसमें सुख ले लो पूरा । वही चार्वाक ने भी कहा है कि जो भी तुम्हारे हाथ में है उससे पूरा सुख निचोड़ लो; सुख को आगे पर मत टालो । क्योंकि जो समय खो जाएगा उसे तुम पा न सकोगे। और टालने की आदत अगर बन गई तो तुम टालते ही चले जाओगे, तुम कभी सुख पा न सकोगे। संतुष्ट होने का मतलब यह है कि जो तुम्हारे पास है उससे तुम इतना सुख ले लो कि संतोष झर जाए, भर । तुम टालो मत आगे । और तुम संतुष्ट होने की कोशिश करोगे ताकि कल सुख मिले, तो तुम न संतुष्ट हो सकते हो, न सुख पा सकते हो। तुम सुख आज ही पा लो; तुम संतुष्ट हो जाओगे। क्योंकि जब सुख भविष्य में नहीं होता तो असंतुष्ट होने का कारण नहीं रह जाता। भविष्य का सुख असंतुष्ट होने का कारण है। भविष्य की अपेक्षा फ्रस्ट्रेशन का, विषाद का कारण है। इपीकुरस से मिलने यूनान का सम्राट गया था। देख कर दंग हुआ। उसने भी सोचा था, यह नास्तिक पीरस ! न ईश्वर को मानता, न आत्मा को मानता, सिर्फ आनंद को मानता है; बिलकुल, निपट नास्तिक है ! तो सोचा था उसने, पता नहीं यह क्या कर रहा होगा। जब वे पहुंचे वहां तो बहुत हैरान हुए। इपीकुरस का बगीचा था जिसमें उसके शिष्य और वह रहता था । सम्राट ने उसे देखा तो वह इतना शांत मालूम पड़ा जैसा कि ईश्वरवादी कोई साधु कभी दिखाई नहीं पड़ा था। वह बहुत खुश हुआ उसके आनंद को देख कर। उनके पास कुछ ज्यादा नहीं था; लेकिन जो भी था वे उसके बीच ऐसे रह रहे थे जैसे सम्राट हों । सम्राट ने कहा कि मैं कुछ भेंट भेजना चाहता हूं। डरता था सम्राट - कि इपीकुरस से कहना कि भेंट भेजना चाहता हूं, जो भौतिकवादी, पता नहीं, साम्राज्य ही मांग ले-डरता था। तो उसने कहा, फिर भी उसने कहा कि आप जो कहें, मैं भेज दूं। तो इपीकुरस बड़े सोच में पड़ गया। उसके माथे पर, कहते हैं, पहली दफा चिंता आई। उसने आंखें बंद कर लीं; उसके माथे पर बल पड़ गए। और सम्राट ने कहा कि आप इतने दुखी क्यों हुए जा रहे हैं ? तो इपीकुरस ने कहा, जरा मुश्किल है, क्योंकि हम भविष्य का कोई विचार नहीं करते । और आप कहते हैं कुछ मांग लो, कुछ आप भेजना चाहते हैं। तो बड़ी मुश्किल में आपने डाल दिया। हमारे पास जो है हम उसमें आनंद लेते हैं, और जो हमारे पास नहीं है उसका हम विचार नहीं करते। अब इसमें मुझे विचार करना पड़ेगा, जो मेरे पास नहीं है, आपसे मांगने का । तो उसने कहा कि एक ही रास्ता है। एक नया नया आदमी आज ही आश्रम में भरती हुआ है। वह अभी इतना निष्णात नहीं हुआ आनंद में, उससे हम पूछ लें। मगर वह जो नया नया आश्रम में आया था, इपीकुरस के ही आश्रम में आया था, सोच-समझ कर आया था। उसने भी बहुत सोच-समझ कर यह कहा कि आप ऐसा करें, थोड़ा मक्खन भेज दें; यहां रोटियां बिना मक्खन की हैं। सम्राट ने मक्खन भेजा नहीं, वह मक्खन साथ लेकर आया । वह देखना चाहता था कि मक्खन का कैसा स्वागत होता है । उस दिन आश्रम में ऐसा था जैसे स्वर्ग उतर आया हो। वे सब नाचे, आनंदित हुए; मक्खन रोटी पर
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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