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________________ जीवन परमात्म-ऊर्जा का खेल हैं 419 तो पहले जब मेरा जोर था कि सीधे निष्क्रियता में उतर जाएं तो वह मेरे कारण था । उसमें भ्रांति थी । भ्रांति यह थी कि मैं सोचता था, जैसे मुझे हुआ है, ठीक वैसे ही दूसरों को भी हो जाएगा। निरंतर लोगों को निष्क्रिय करने की कोशिश करके मुझे अनुभव हुआ कि कठिन है। ये व्यक्ति अभी सक्रिय ही नहीं हुए हैं पूरे, इसलिए निष्क्रिय न हो सकेंगे। तो फिर इन्हें निष्क्रिय कर लेना सीधा, आसान नहीं है। पहले इन्हें सक्रियता में ले जाना जरूरी है। करीब-करीब मेरा पानी निन्यानबे डिग्री पर रहा होगा इसलिए सौ डिग्री पर उबल गया। वह निन्यानबे डिग्री तक अनेक जन्मों में आया होगा सक्रियता की। तो मुझे लगा था कि एक ही डिग्री की बात है; किनारे पर खड़े हैं, छलांग लग जाएगी। वह अपने कारण आपसे मैंने निष्क्रियता की बात करनी शुरू की थी। वही लाओत्से कर रहा है—उसके कारण । इसलिए लाओत्से की बात बहुत काम में आ नहीं सकी। बात बिलकुल सही है, लेकिन अपने को ध्यान में रख कर कर रहा है। फिर जितना ज्यादा मैंने लोगों के साथ प्रयोग किया, मैंने देखा कि कोई पचास डिग्री पर है, कोई चालीस डिग्री पर है। वह एक डिग्री में छलांग लग नहीं सकती। और एक डिग्री में – वह कोशिश भी करके एक डिग्री ले आता है तो पचास वाला इक्यावन डिग्री पर पहुंचता है, कुछ फर्क नहीं पड़ता; वह कहता है, कुछ हो नहीं रहा । निन्यानबे वाला कहता है सब हो गया, क्योंकि वह भाप बन जाता है। तो मेरी प्रतीति यह थी कि एक डिग्री से सब हो जाता है, वह अपने कारण थी। फिर मैंने बहुत लोगों में देखा कि उनमें एक डिग्री नहीं, दस डिग्री भी बढ़ जाती है तो भी कुछ नहीं होता। तब खयाल आना शुरू हुआ कि निन्यानबे डिग्री पर जो नहीं है वह छलांग नहीं लगा सकता। तो आपको अब मैं पागल होना सिखा रहा हूं कि आप निन्यानबे डिग्री तक गर्म हो जाएं। और तब मैं आपसे रुकने को कहता हूं जब मैं पाता हूं कि अब आप उबल रहे हैं, अब इसके आगे जाने का आपको कोई उपाय नहीं है; अब छलांग लग सकती है। अगर आप रुक गए तो इसी क्षण छलांग लग जाएगी। सक्रियता साधन है निष्क्रियता में ले जाने का । लक्ष्य तो निष्क्रियता ही है। सारी क्रियाएं उस जगह पहुंचाने के लिए हैं जहां आप बिलकुल क्रिया-शून्य हो जाएं। सब करना उस जगह पहुंच जाने के लिए है जहां कुछ करने को न बचे और परम विश्राम हो जाए। पांचवां प्रश्नः करोड़ों-अरबों वर्ष की स्मृतियों के संग्रह के भीतर होते हुए भी साधक कैसे मन के बोझ से बिर्भार हो, इस पर कुछ कहें। इतने विराट अतीत के कारण चित्त में निराशा उत्पन्न होती हैं। निराशा उत्पन्न करने का कोई भी कारण नहीं है। अतीत लंबा है; बोझ भारी है। लेकिन बोझ अतीत के कारण नहीं है; आप उसको पकड़े हैं, इस कारण है। अगर बोझ अतीत के कारण ही होता तो निराशा स्वाभाविक है। फिर मैं आपसे कहता ही नहीं, क्योंकि मामला इतना लंबा है कि होने वाला नहीं था। करोड़ों वर्ष का अतीत है! वह बोझ इतना बड़ा है कि आप कितना ही उतारें, आप उतार न पाएंगे। अगर बोझ को ही उतारना होता तो असंभव थी बात । लेकिन बोझ आपको नहीं पकड़े हुए है, आप बोझ को पकड़े हुए हैं। मजा तो यह है कि बोझ को पकड़े हैं, इसीलिए वह आपके ऊपर बोझ मालूम हो रहा है । छोड़ दें; छोड़ना एक क्षण में हो सकता है। इकट्ठा किया है अरबों वर्ष में, लेकिन छोड़ना एक क्षण में हो सकता है। एक आदमी धन इकट्ठा करता है पूरे जीवन दान एक क्षण में हो सकता है। वह यह तो नहीं कहेगा कि पचास साल लगे हैं इकट्ठा करने में तो दान करने में पचास साल तो कम से कम लगेंगे ही। रामकृष्ण के पास एक आदमी आया था। एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं। रामकृष्ण ने कहा, मैं क्या करूंगा
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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