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ताओ उपनिषद भाग ४
आपको इसमें दिक्कत होती है। लेकिन आप भी यही काम कर रहे हैं। लेकिन जिस काम से आप परिचित हैं, आदी हैं, वह आपको दिखाई नहीं पड़ता। अगर साधु मोटर में चल कर आ रहा है, खतम। पैदल चल कर आ रहा है, चरणों में आपने सिर रख दिया। आप कर क्या रहे हैं, आपको पता है? अगर साधु ठीक दोनों वक्त भोजन खा रहा है, समाप्त। आपका संबंध टूट गया। साधु भूखा मर रहा है, आप सिर पर लिए घूम रहे हैं। आप कर क्या रहे हैं? जूतों में खीले ठोक रहे हैं; कमर में। वे खीले बहुत साफ थे और ईमानदार। ये खीले बहुत बेईमान हैं, और दिखाई भी नहीं पड़ते। मगर इससे आप परिचित हो गए हैं, आदी हो गए हैं।
आप साधु को सुख में देख लें तो फौरन असाधु हो जाते हैं। साधु का दुख में होना जरूरी है। क्या कारण होगा? यह दुखवाद का क्या कारण होगा? जितना सता रहा हो साधु अपने को, उतना साधु मालूम पड़ता है। अगर अपने बाल नोच कर उखाड़ रहा है, तो लगता है कि हां, तपस्वी है। नग्न खड़ा है धूप, बरसात में, तो लगता है तपस्वी है। भूखा मर रहा है, तो लगता है तपस्वी है। जब उसके शरीर में हड्डियां-हड्डियां रह जाएं और सारा शरीर कृशकाय होकर पीला दिखाई पड़ने लगे, तब आप कहते हैं कि अब तपश्चर्या का प्रभाव! तपश्चर्या का तेज अब प्रकट हुआ! वह जो पीलापन प्रकट होता है मृत्यु के करीब, उसको आप तपश्चर्या का तेज! जब सारा शरीर मुर्दा हो जाता है, सिर्फ आंखें ही बचती हैं, तब आप कहते हैं क्या ज्योति! पर आप कर क्या रहे हैं? आपकी आकांक्षा क्या है? आप पर प्रभाव किस चीज का पड़ रहा है?
दुख का प्रभाव पड़ रहा है। कोई अपने को सता रहा है, आप उसमें रस ले रहे हैं। और चूंकि वह अपने में सताने वाला भी आपके रस में उत्सुक है, वह अपने सताने को बढ़ाए चला जाता है। क्योंकि जितना वह अपने को सताता है, उतना आपका आदर बढ़ता है, उतना उसके अहंकार की तृप्ति होती है।
__ एक बार आप तय कर लें कि एक महीने भर के लिए इस मुल्क में हम किसी खुद को सताने वाले आदमी को आदर नहीं देंगे, आपके सौ में से निन्यानबे तपस्वी खोजे नहीं मिलेंगे, भाग जाएंगे। क्योंकि वे आपके आदर पर जी रहे हैं। वे अपने को सता रहे हैं। ध्यान रहे, उसका पाप-कर्म आपको भी लगेगा। क्योंकि जिम्मेवार आप भी हैं। वे. खुद ही अपने को नहीं सता रहे हैं, आप भी हाथ बंटा रहे हैं। वे जो भी कर रहे हैं, उसमें आप भी सहयोगी और साथी हैं। शायद आप न आदर दें तो वह उपद्रव बंद हो जाए। और अहंकार सब कुछ कर सकता है।
दूसरे से लोग लड़ते हैं, समझ में आने वाली बात है। दूसरे को जीतने का एक ही उपाय है : उससे लड़ना और उससे ज्यादा ताकत प्रकट करना। लेकिन स्वयं को जीतने का उपाय लड़ना नहीं है। यह आप बाहर की भाषा को भीतर ला रहे हैं। और जो बाहर सफल होता है वह भीतर सफल होगा, इस भ्रांति में मत पड़ना। जो बाहर सफल होता है वह भीतर असफल होगा, क्योंकि दिशाएं बिलकुल विपरीत हैं। और जो गणित बाहर कारगर है वह गणित भीतर बिलकुल कारगर नहीं है।
इसलिए जो लोग बाहर की लड़ाई को अनुभव किए हैं और हम सब अनुभव किए हैं। जन्मों-जन्मों तक जो जीवन का संघर्ष है, उसमें हमने जाना है कि ताकतवर जीतता है, कमजोर हारता है, हिंसा जीतती है तो हम दूसरे के साथ हिंसा करते रहे हैं। फिर हमें खयाल आता है स्वयं को जानने, स्वयं को जीतने का। कठिनाई है हमारी भाषा की, क्योंकि भाषा भी हमारी हिंसा से भरी है। हम दूसरे को जीतते हैं तो हमने भाषा में यह भी कहना शुरू कियाः स्वयं
को जीतना। स्वयं को जीतना मजबूरी का शब्द है, क्योंकि और कोई शब्द नहीं है। अन्यथा यह शब्द ठीक नहीं है। • क्योंकि यहां जीत का सवाल ही नहीं है। जीत का सवाल ही हिंसा और शक्ति से जुड़ा हुआ है। भीतर तो वही व्यक्ति जीतता है, या भीतर तो वही व्यक्ति सफल होता है, भीतर तो वही जानने में पहुंच पाता है, ज्ञान में पहुंच पाता है, जो लड़ता ही नहीं, जो शक्ति का उपयोग ही नहीं करता, जो शक्ति को बिलकुल निरुपयोगी छोड़ देता है।