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छला प्रश्न : प्रथम दिन की चर्चा में आपने समझाया कि अयोग्यता ताओ चिंतना का कीमती शब्द है, तथा उसका बहुत आध्यात्मिक मूल्य है। इस संदर्भ में ऐसा लगता है कि तामसी व आलसी लोग तो अयोग्यता के गुण से संपन्न होते ही हैं, लेकिन फिर भी उनका आध्यात्मिक विकास होता दिनवाई नहीं पड़ता। इस विषय में आपकी क्या दृष्टि है?
लाओत्से जिसे अयोग्यता कहता है वह गहनतम योग्यता का नाम है। वह आलस्य नहीं है, विश्राम की परम दशा है। वह तमस भी नहीं है, ऊर्जा की अत्यंत प्रज्वलित स्थिति है। फर्क को ठीक से समझ लें। भ्रांति स्वाभाविक है, क्योंकि जो व्यक्ति भी
निष्क्रिय बैठा है, हमें लगेगा, आलसी है। सभी निष्क्रिय बैठे हुए व्यक्ति आलसी नहीं होते। जिसे हम आलसी कहते हैं, खाली तो वह भी नहीं बैठता; मन का काम जारी रहता है। शायद आलसी आदमी शरीर से कुछ न करता हो, मन से तो पूरी तरह करता है। और जहां शरीर की गति वाले लोग दौड़ रहे हैं वहां वह भी अपनी कामना और वासना से दौड़ता है। उसके मन के संबंध में कोई फर्क नहीं है। हमें आलसी दिखाई पड़ता है, क्योंकि हमारे जैसा नहीं दौड़ रहा है। दौड़ तो वह भी रहा है।
अगर आलस्य परम हो जाए, जिसको लाओत्से कह रहा है निष्क्रियता, तो आलस्य ही योग्यता हो जाएगी। लेकिन निष्क्रियता चाहिए पूर्ण। शरीर ही न रुका हो, मन भी रुक गया हो, कोई भी क्रिया न रह जाए। तो आध्यात्मिक विकास दूर नहीं है। आलस्य शब्द को सुनते ही हमारे मन में निंदा उठ आती है। क्योंकि हम सब जीते हैं प्रयोजन से, क्रिया से, कर्म से, फल से। हमने आलसी को बुरी तरह निंदित किया है। हमसे विपरीत है आलसी। इसलिए यह तो हम सोच ही नहीं सकते कि ऐसी भी कोई स्थिति हो सकती है आलस्य की जो अध्यात्म बन जाए। परम आलस्य की स्थिति अध्यात्म बन जाएगी-शरीर ही न रुके, मन भी रुक जाए।
जिसे हम आलस्य कहते हैं, वह क्रिया करने की वासना से मुक्ति नहीं है। क्रिया की वासना तो पूरी मौजूद है, लेकिन उस वासना के साथ शरीर को दौड़ाने की क्षमता नहीं है। हमारा जो आलस्य है, वह नपुंसक को अगर हम ब्रह्मचारी कहें, वैसा आलस्य है। नपुंसक भी ब्रह्मचारी है; इसलिए नहीं कि वासना की कोई कमी है, बल्कि इसलिए कि शरीर साथ नहीं देता। लाओत्से उसे कह रहा है अयोग्य, निष्क्रिय, परम विश्राम में डूबा व्यक्ति, जिसके पास ऊर्जा तो बहुत है, आपसे ज्यादा है, क्योंकि आप तो खर्च कर रहे हैं, वह खर्च भी नहीं कर रहा है, जिसका शरीर आपसे ज्यादा गतिमान हो सकता है, क्योंकि सारी ऊर्जा उसके भीतर छिपी है, लेकिन उस ऊर्जा के रहते हुए भी मन में दौड़ की कोई वासना नहीं है। इसलिए शरीर भी रुक गया है, मन भी रुक गया है। शरीर और मन की इस ठहरी हुई अवस्था का नाम ध्यान है।
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