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________________ सर्वाधिक मूल्यवान-स्वयं की निजता पर ईंटें पूरे रास्ते पर थीं। और ईंटों का बोझ बढ़ने लगा। और जो उठा ली थीं, उनको छोड़ना मुश्किल। आपको भी मुश्किल, उसको भी मुश्किल। और ईंटें पड़ी ही थीं। और मोह भी नहीं छूटता था। तो वह उठाता भी गया, दौड़ता भी गया। बहुत बार वह दूसरे देवता से आगे निकल आता, लेकिन फिर ईंटें उठाने लगता। और ईंटें बढ़ती गईं, और अंतिम क्षण में वह हार गया। . बाद में यह पता चला कि जिस देवता से वह हार गया है वह सबसे धीमा दौड़ने वाला देवता है। वे दोनों दो छोर थे-एक सबसे ज्यादा दौड़ने वाला, एक सबसे कम दौड़ने वाला। लेकिन कम, धीमा दौड़ने वाला जीत गया। उसने संसारी मन की एक तरकीब का उपयोग कर लिया। जहां पहुंचना है, उसके लिए तो जीवन काफी है, दौड़ काफी है। जितनी दौड़ चाहिए उतनी आपके पास है। लेकिन रास्ते पर बहुत सोने की ईंटें हैं, बड़े प्रलोभन हैं। और रास्ते से बहुत सी पगडंडियां निकलती हैं जो व्यर्थ जंगलों में भटका ले जाती हैं। लेकिन उन पगडंडियों पर सब पर स्वर्ण-द्वार हैं, बड़ी मोहक हैं। इसलिए लाओत्से कहता है, 'जो जानता है कहां रुकना है, उसे कोई खतरा नहीं है। वह दीर्घजीवी हो सकता है।' यह छोटा सा जीवन भी उसके लिए पर्याप्त है। और जो जानता नहीं कहां रुकना है, उसके लिए कितने ही जीवन अपर्याप्त होंगे। इस पूरे सूत्र का सार-अंश मन में रख लेंः निजता का मूल्य है। और जो भी करें, वह मेरी निजता बढ़ती हो, मेरी आत्मा बढ़ती हो, मेरा अस्तित्व सघन होता हो, उसे ध्यान में रख कर करें। और जिससे भी यह अस्तित्व खतरे में पड़ता हो, खोता हो, क्षीण होता हो, उससे बचें, उससे रुकें। और ध्यान रखें, कहां रुक जाना है। सुयश की नहीं, प्रतिष्ठा की नहीं, महत्वाकांक्षा की नहीं, अपने होने की, अपने अस्तित्व के आनंद की खोज; इन थोड़े से शब्दों में पूरी की जा सकती है। दूसरे क्या कहते हैं, यह मूल्यवान नहीं; आप क्या हैं, यही मूल्यवान है। क्या आपके पास है, यह मूल्यवान नहीं; जो भी आपके पास है उसमें आप संतुष्ट हैं, यह मूल्यवान है। क्या मिल जाएगा, तब आप संतुष्ट होंगे, यह बात फिजूल है। जो मिल गया है अगर आप उसमें संतुष्ट हैं तो ही आप निजता को उपलब्ध हो पाएंगे। प्रेम आनंद बांटता है। और जितना बांट सकें, उलीच सकें स्वयं को, उतनी ही आपकी सत्ता समृद्ध होती है। आज इतना ही। 343
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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