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ताओ उपनिषद
ऊपर की तरफ बहना है। जितना कोमल हो जाता है उतना ही ऊर्ध्वगमन शुरू हो जाता है। क्योंकि ऊंचाई पर जाने के लिए सूक्ष्म होना जरूरी है। इतना सूक्ष्म होना जरूरी है कि सब चीजें भारी हो जाएं, और आप सब चीजों से कम भारी हो जाएं, तभी ऊपर उठ सकेंगे।
इसे थोड़ा समझ लें। अगर आपका भार बहुत है तो परमात्मा तक पहुंचना असंभव है। निर्भार होना जरूरी है, ऊर्ध्वगमन के लिए वेटलेस होना जरूरी है। पानी में भी वजन है। और पानी बहता है जरूर और सूक्ष्म रूप से लड़ता हुआ दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन लड़ता है। तभी तो आखिर में चट्टान को तोड़ देता है। लेकिन भाप लड़ती ही नहीं, उसका संघर्ष खो गया। उसका कोई प्रतिरोध नहीं है। वह चुपचाप लीन हो जाती है आकाश में, ऊपर उठ जाती है।
जैसा भौतिक शास्त्र कहता है कि प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हैं, प्रत्येक चित्त के मनोवेग की भी वैसी ही तीन अवस्थाएं हैं। क्रोध है, वह जमा हुआ है। घृणा, वह जमी हुई पत्थर की चट्टान है। क्रोध को अगर पिघला दें तो वह पानी की तरह हो जाएगा। जिसको हम इस जगत में प्रेम कहते हैं वह क्रोध का पिघला हुआ रूप है। ऊर्जा वही है। और अगर यह प्रेम वाष्पीभूत हो जाए तो प्रार्थना हो जाती है तब यह आकाश की तरफ उठने लगती है। और इन तीनों के भीतर कोई तीन चीजें नहीं हैं, एक ही चीज है।
तो अगर आप कठोर हैं तो आप पत्थर की तरह रह जाएंगे। अगर आप थोड़े से द्रवीय हैं, बहते हैं, कोमल हैं, तो पानी की तरह हो जाएंगे। और अगर आप बिलकुल ही सूक्ष्म हो गए हैं और आपने सारी कठोरता छोड़ दी, सारा प्रतिरोध छोड़ दिया है, आप शून्य की भांति हो गए हैं, तो आप वाष्पीभूत हो जाएंगे, आप आकाश में उठने लगेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर निरंतर यह जांच करते रहना जरूरी है कि वह ऊर्जा का किस भांति उपयोग कर रहा है। और ध्यान रहे, ऊर्जा की एक मात्रा है आपके भीतर, अगर आप उसका क्रोध बना लें पूरा तो वह पूरा क्रोध बन जाएगी; उसका पूरा प्रेम बना लें तो वह पूरा प्रेम बन जाएगी; उसे चाहें तो पूरी प्रार्थना बना लें तो वह प्रार्थना बन जाएगी। संसार का कोमलतम तत्व प्रार्थना है।
लेकिन प्रार्थना से तो बहुत कम लोगों का परिचय है-उनका भी नहीं, जो मंदिरों में, गिरजाघरों में प्रार्थनाएं कर रहे हैं। क्योंकि प्रार्थना कोई करने की बात नहीं है। अगर आप कर रहे हैं तो फिर अभी स्थूल बात है। प्रार्थना तो चित्त की एक भाव-दशा है। आदमी प्रार्थनापूर्ण हो सकता है; प्रार्थना करने की कोई बात नहीं है। करना तो एक रिचुअल है, बच्चों का खेल है। होना एक क्रांति है। आप प्रेयरफुल हो सकते हैं। तब आपका उठना, बैठना, श्वास लेना, सभी प्रार्थनापूर्ण हो जाएगा। तब आप जो भी करेंगे वह प्रार्थना होगी। तब प्रार्थना अलग से करने की कोई बात नहीं रह जाएगी। अलग से करनी पड़ती है हमें, क्योंकि हमें प्रार्थना का कोई पता नहीं है। हमने और सारे करने के क्रम में प्रार्थना को भी जोड़ रखा है। वह भी एक काम है। जैसे आप दफ्तर जाते हैं, भोजन करते हैं, व्यवसाय करते हैं, वैसे आप प्रार्थना भी करते हैं। लेकिन प्रार्थना का करने से कोई भी संबंध नहीं है। आप प्रार्थनापूर्ण हो सकते हैं। तब रास्ते से गुजरते वक्त भी आप प्रार्थनापूर्ण होंगे। लेकिन प्रार्थना से परिचय दूर की बात है। कभी-कभी कोई भक्त, कोई मीरा, कोई राबिया प्रार्थना कर पाती है। इस कोमल तत्व का हमें कोई पता नहीं है।
इससे जो नीचे की स्थिति है वह प्रेम है। हमें उसका भी ठीक-ठीक पता नहीं है। प्रेम मध्य की अवस्था है, जल की भांति। और ध्यान रहे, बर्फ सीधी भाप नहीं बन सकता। कोई उपाय नहीं है। बर्फ इसके पहले कि भाप बने उसे पानी बनना पड़ेगा। क्षण भर को ही सही, लेकिन बर्फ सीधी भाप नहीं बन सकता। कोई छलांग नहीं लग सकती है। उसे पहले पानी बनना पड़ेगा। पानी बन कर ही भाप की तरफ जाने का रास्ता है।
आप जहां हैं, वहां से पहले प्रेम की तरफ बहना होगा। साधारण जीवन में प्रेम कोमलतम तत्व है, असाधारण जीवन में प्रार्थना कोमलतम तत्व है। साधारण मनुष्य के अनुभव में कभी-कभी प्रेम का झोंका आता है, तब उसके
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