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मैं अंधेपन का इलाज करता हूं
तो आज जो भारत की जो अनैतिक दशा है उसमें शंकर के परम सत्य का हाथ है। वह लाओत्से ठीक कहता है कि पैगंबर, तीर्थंकर ज्ञान के फूल भी हैं और मूढ़ता के स्रोत भी। शंकर का हाथ है। जान कर नहीं। शंकर कभी सोच भी नहीं सकते कि ऐसा हो। लेकिन जो विचार उन्होंने दिया और उस विचार का इस मुल्क ने जो उपयोग किया वह यह था कि ठीक है। इसलिए सब बात, सब चरित्र, सब नैतिकता, सब जीवन की पवित्रता का कोई मूल्य नहीं रहा। सब असार है। दोनों चीजें असार हो गईं-शुभ भी, अशुभ भी। और तब आदमी कोई संत नहीं हो गया, कोई समाज संत नहीं हो गया। समाज बहुत नीचे गिर गया। इस माया के सिद्धांत ने भारत को बहुत नीचे गिराया।
परम सत्य के साथ एक खतरा है कि वह बहुत ऊंचा होता है; वहां तक आप पहुंच नहीं पाते। इसलिए जगत में सदा से धर्म के दो पहलू रहे हैं। एक पहलू है, जिसको हम भारत में कहते हैं सद्यः मुक्ति, सडन एनलाइटेनमेंट। यह कभी करोड़ में एकाध व्यक्ति को होता है, कभी करोड़ में एकाध व्यक्ति को होता है। एक क्षण में सब कुछ घट जाता है। दूसरा एक जीवन की धारा है, क्रमिक मुक्ति, ग्रेजुअल, आहिस्ता-आहिस्ता। अधिक लोगों को वैसे ही चलना होता है एक-एक कदम। पर एक-एक कदम चल कर भी हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
और ध्यान रखें, क्रमिक से ही शुरू करें, क्षण में मुक्त होने का खयाल मत लाएं। हो भी सकते हैं, लेकिन क्रमिक से शुरू करें। कोई बाधा नहीं है। अगर आपकी योग्यता बन जाएगी तो आप क्षण में भी मुक्त हो जाएंगे, क्रमिक प्रयास से कोई बाधा नहीं पड़ेगी। लेकिन अगर आपने क्षण में मुक्त होने की कोशिश की और क्रमिक की भी योग्यता नहीं थी, तो आप व्यर्थ ही समय गंवाएंगे और बहुत तरह की भ्रांतियों में भी पड़ सकते हैं।
निश्चित ही, सिद्ध हवा-पानी की तरह सरल हो जाता है। लेकिन साधक को इस जगह तक पहुंचने के लिए बड़े उपाय करने पड़ते हैं। सरल होना इतना सरल नहीं है, और सहज होना सहज नहीं है। सहज होने के लिए साधना और सरल होने के लिए बड़े जटिल रास्तों से गुजरना पड़ता है।
छठवां प्रश्न : यदि संगठन और संप्रदाय से धर्म व ताओ का पतन होता है तो कृपया समझाएं कि बुद्ध या महावीर जैसे लोग संगठन की नींव क्यों कर डालते हैं? आप भी इस बात के प्रति सचेत होते हुए नव संन्यास अंतर्राष्ट्रीय जैसे संगठन की नींव क्यों डाल रहे हैं?
जैसा मैंने कहा, जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है, और जब भी सत्य पैदा होगा तो संगठन पैदा होगा। इससे बचा नहीं जा सकता। क्योंकि जैसे ही सत्य दूसरे से कहा जाएगा, संगठन शुरू हो गया। या तो बुद्ध को जो हुआ है, वे चुप रह जाएं पीकर, किसी को न कहें।
वह उन्होंने सोचा था। जब उन्हें ज्ञान हुआ तो सात दिन तक वे चुप रहे; सोचा कि कोई सार नहीं है कहने में। जो पहुंच सकते हैं वे बिना कहे भी पहुंच जाएंगे; और जिनको पहुंचना नहीं है, कहने से कोई फायदा नहीं है, कहने में भी वे गड़बड़ पैदा करेंगे। उचित है कि चुप ही रहूं। लेकिन मीठी कथा है कि देवताओं ने, खुद ब्रह्मा ने आकर उनके चरणों में निवेदन किया कि आप ऐसा मत करें। क्योंकि न मालूम कितने-कितने हजार वर्षों के बाद कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है; उसने जो जाना है वह लोगों को कहे, संवादित करे, साझीदार बनाए। बुद्ध ने कहा, लेकिन जो पा सकते हैं उसे वे पा ही लेंगे मेरे बिना, और जो नहीं पा सकते उनको कहने में मेरा समय क्यों लगाऊं! मेरी व्यर्थ शक्ति क्यों लगाऊं!
ब्रह्मा भी थोड़ी दिक्कत में पड़े। तर्क बहुत सीधा था और साफ था। पर देवताओं ने आपस में बैठक की। कहीं षड्यंत्र किया, सोचा-विचारा और एक नतीजे पर आए। आकर उन्होंने बुद्ध से कहा, आप बिलकुल ठीक कहते हैं।
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