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स्वर्ग ऑन पृथ्वी का आलिंगन
जान लेना उचित था कि कहां रुक जाना है। और जो जानता है कि कहां रुकना है, वह खतरों से बचता है। संसार में ताओ की तुलना उन नदियों से की जाए जो बह कर समुद्र में समा जाती हैं।'
___ इस स्वभाव के साथ न तो कोई नाम है, न कोई शब्द है, न कोई दर्शन है, न कोई शास्त्र है। लेकिन मानवीय सभ्यता का उदय हुआ, आदमी ने सोचना शुरू किया, समझना शुरू किया; शब्द आ गए। शब्द आते ही...।।
बच्चा अभी भी जब पैदा होता है तो वह ताओ में होता है। लेकिन हम उसको वैसे ही नहीं छोड़ सकते। उसे सिखाना होगा, शिक्षित करना होगा। जरूरी भी है। अगर वैसा छोड़ देंगे तो वह भी अन्याय होगा। वह जी भी न सकेगा। इस विराट समूह में, चारों तरफ जो घेरा बना है, इसके साथ चलने के लिए उसे योग्य बनाना होगा। उसे घिसना होगा, काटना होगा, तराशना होगा; उसके अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाना होगा। तभी वह चल पाएगा। और भाषा देनी होगी, शब्द देने होंगे।
लाओत्से कहता है, सभ्यता का जन्म भाषा का जन्म है। इसलिए और कोई जानवर सभ्य नहीं हो पाता, क्योंकि उनके पास भाषा नहीं है। भाषा के बिना सभ्य होना असंभव है। बोलने के बिना समाज ही पैदा नहीं होता; व्यक्ति अकेला रह जाता है। बोलना है तो शब्द आ जाएंगे; समाज बनेगा तो शब्द आ जाएंगे, भाषा आ जाएगी, नाम
आ जाएंगे। और जब नाम आ गए और नाम के लाओत्से बहुत खिलाफ है, भाषा के बहुत खिलाफ है, मौन के पक्ष में है-तब आदमी के लिए जान लेना उचित था कि अब रुक जाओ। लेकिन रुकना मुश्किल है। एक नाम दूसरा नाम पैदा करता है। शब्द शब्दों को पैदा करते चले जाते हैं।
जितनी सभ्य भाषाएं हैं वे शब्दों को बढ़ाए चली जाती हैं। अंग्रेजी भाषा हर वर्ष कोई पांच हजार नए शब्द जोड़ लेती है। बढ़ते चले जाते हैं शब्द; भाषा बढ़ती चली जाती है; विचार फैलते चले जाते हैं। और प्रकृति और स्वयं के बीच का फासला भी बढ़ता चला जाता है। भाषा से पटे हुए रास्ते ही हमारे बीच परिधि और केंद्र को अलग करते हैं।
लाओत्से कहता है, तब जान लेना उचित था कि कहां रुक जाना है। क्योंकि जो जानता है कहां रुकना है, वह खतरों से बच जाता है।
लेकिन आदमी नहीं रुक सका। शायद इस खतरे से गुजरना भी जरूरी था। और शायद इस खतरे से गुजर कर ही मौन का पूरा अर्थ समझ में आ सकता था। आप अगर समझ जाएं और रुक जाएं, तो वह जो ताओ खो गया है पीछे, वापस पाया जा सकता है। भाषा को छोड़ते ही, मौन में उतरते ही स्वभाव से संबंध हो जाता है। भाषा में उतरते ही आप फासले पर जाना शुरू हो गए। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप बोलें न। लाओत्से भी बोलता ही था। प्रयोजन इतना ही है कि आप जब किसी दूसरे से न बोल रहे हों तब न बोलें।
लेकिन आप तब भी बोल रहे हैं। कोई नहीं है, आप अकेले बैठे हैं, तब भी बोल रहे हैं। आपके ओंठ भी कंप रहे हैं। अगर कोई ठीक से जांच करे तो आपको पकड़ सकता है कि आप भीतर क्या बोल रहे हैं। भीतर चल रहा है; किसी से बात हो रही है, चीत हो रही है, भीतर चल रहा है। भाषा रुकती ही नहीं। सोते हैं तो, जागते हैं तो, सपना, विचार चल रहे हैं भीतर। यह जो भीतर का सतत भाषा का प्रवाह है, यह स्वभाव में नहीं उतरने देता।।
स्वभाव तो मौन है; प्रकृति तो अबोल है। उस अबोल में जो जान लेता है रुक जाना, वह खतरे से बच जाता है। कहां तक भाषा में जाना, इसे समझ लेना बुद्धिमानी है। दूसरे से जब बात करनी हो तो भाषा जरूरी है; अपने से जब बात करनी हो तो मौन जरूरी है। दूसरे से संवाद करना हो तो शब्द चाहिए; अपने से संवाद करना हो तो निशब्द चाहिए। अपने से बोलने की कोई भी जरूरत नहीं है; अपने से तो चुप होने की जरूरत है। जिस दिन आप अपने भीतर चुप होंगे उस दिन आपका अपने से पहला संभाषण होगा। जब तक आप भीतर चुप नहीं हुए तब तक आपका अपने से मिलना नहीं हुआ है।