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मैं अंधेपन का इलाज करता हूं
होगा; रास्ता वही होगा। रास्ता बदलने की जरूरत नहीं कि आप दूसरे रास्ते से घर पहुंचे। सिर्फ दिशा बदलने की जरूरत है कि आपका मुंह घर की तरफ होगा। अभी आते वक्त आपकी पीठ घर की तरफ थी।
चेतना का विकास ही मनुष्य को प्रकृति से दूर ले जाता है, क्योंकि पीठ प्रकृति की तरफ है। और चेतना का ही अंतिम विकास मनुष्य को प्रकृति में ले जाता है, तब मुंह प्रकृति की तरफ हो जाता है। अगर मेरी बात ठीक से खयाल में ली हो, तो मैंने कहा, जीवन का विकास वर्तुलाकार है। जब आप चलना शुरू करते हैं चेतना के जगत में, जैसा मनुष्य प्रकृति से टूटता चला जाता है, अगर यह विकास पूरा हो जाए तो वर्तुल पूरा हो जाएगा और मनुष्य प्रकृति से पुनः जुड़ जाएगा। यह विकास बीच में रुक जाता है, यही अड़चन है। आदमी पूरा आदमी नहीं हो पाता, यही अड़चन है। अधूरा रह जाता है। अधूरे से कठिनाई है। आप पूरे चेतन हो जाएं या पूरे अचेतन हो जाएं तो प्रकृति से जुड़ जाएंगे। पूरे अचेतन में भी आप प्रकृति से जुड़ते हैं, पूरे चैतन्य में भी। क्योंकि पूर्णता प्रकृति से जोड़ती है। और अपूर्णता प्रकृति से तोड़ती है।
इसलिए मैंने कहा कि दो ही उपाय हैं। या तो बेहोश हो जाएं तो बेहोशी के क्षण में थोड़ी देर को प्रकृति के साथ एकता सध जाती है। इसलिए गहरी नींद में सुख मिलता है। सुबह जब आप उठते हैं गहरी नींद के बाद तो कहते हैं, बड़ा आनंदपूर्ण था, रात बड़ी आनंदपूर्ण थी। क्या था रात में जो आनंदपूर्ण था? क्या हुआ क्या? कुछ आप बता नहीं सकते कि कुछ हुआ। लेकिन सुबह एक हलकी झलक छूट जाती है; एक पूरे चित्त पर, शरीर पर एक छाया छूट जाती है सुख की। पर हुआ क्या?
हुआ इतना ही कि रात की गहरी निद्रा में आप गिर गए वापस, अचेतन हो गए; जहां पौधे जी रहे हैं, वहां आप पहुंच गए। जहां पत्थर जीता है वहां आप पहुंच गए। प्रकृति की अचिंता में लीन हो गए; धारा में खो गए। वह जो व्यक्ति की चेतना थी वह न रही। उससे ही सुबह इतना सुखद मालूम पड़ता है। यह सुख प्रकृति में डूब कर वापस लौटने के कारण है। आप ताजे होकर आ गए। फिर युवा हो गए। थकान मिट गई, बासापन चला गया।
इसलिए जो आदमी रात ठीक से सो नहीं पाता, उसका जीवन बड़ा बोझिल हो जाता है। क्योंकि उसके संबंध टूट गए प्रकृति से जुड़ने के। बेहोश होकर जुड़ जाता था, वे संबंध टूट गए। लेकिन कृष्ण ने गीता में कहा है कि योगी जागता है। लेकिन आपको अनिद्रा की जब बीमारी हो जाती है तब आप योगी नहीं हो जाते। अनिद्रा की बीमारी में तो आप रुग्ण होने लगते हैं। सुबह आप पाते हैं कि आप थके-मांदे हैं, उससे भी ज्यादा जितने आप सांझ को थे। रात भी थकान ही बनी है। करवट बदलने में ही और ज्यादा बेचैनी हो गई। और सुबह आप उठते हैं टूटे हुए, मुर्दा। . लेकिन कृष्ण कहते हैं, योगी रात को जागता है। वे ठीक कहते हैं। लेकिन वह घटना तभी घट सकती है जब पूरी चेतना उपलब्ध हो जाए। क्योंकि पूरी चेतना उपलब्ध होने पर फिर प्रकृति से संबंध हो जाता है। पूरी चेतना होने पर भी व्यक्ति खो जाता है, परमात्मा रह जाता है। और पूरी अचेतना होने पर भी व्यक्ति खो जाता है और प्रकृति रह जाती है। दोनों ही हालत में अहंकार मिट जाता है। और जहां अहंकार मिट जाता है वहां निद्रा की कोई आवश्यकता न रही। शरीर विश्राम कर लेगा; चेतना जागी रहेगी। ऐसा नहीं कि बुद्ध सोते नहीं, और ऐसा नहीं कि कृष्ण सोते नहीं। शरीर ही सोता है लेकिन, भीतर दीए की तरह चेतना जलती ही रहती है। और निद्रा में भी क्या घट रहा है, उसका भी बोध बना रहता है। हम तो जागे हुए भी सोए रहते हैं; बुद्ध या कृष्ण सोए हुए भी जागे रहते हैं।
लेकिन यह जागरण तभी संभव है-नहीं तो बुद्ध और कृष्ण पागल हो जाएंगे-यह जागरण तभी संभव है जब उस परम ऊर्जा के स्रोत से मिलने की कोई दूसरी विधि खोज ली गई हो। उससे मिलने का एक ही उपाय है: आप नहीं होने चाहिए। या तो आप बेहोशी में मिट जाएं, या इतने होश से भर जाएं कि अहंकार टिके न।
पर अहंकार बड़े जोर से पकड़े हुए है। वही हमारा रोग है।