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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ कहा कि महावीर के जीवन पर एक फिल्म बनाएं। उन्होंने कहा, उसको कौन देखेगा? उनके जीवन में ऐसा कुछ है ही नहीं। उन्होंने ठीक कहा। वे बिलकुल उदास हो गए। उन्होंने कहा, देखेगा कौन उस फिल्म को? वह चलेगी कैसे? क्योंकि महावीर बैठे हैं आंख बंद किए, इसको कितनी देर तक दिखाइए? इसमें कोई हत्या, इसमें कोई प्रेम का उपद्रव, कोई ट्रायंगल, कुछ भी नहीं है कि दो स्त्रियां लड़ रही हों उनके लिए, खींचतान हो रही हो, कुछ उपद्रव हो-कुछ भी नहीं है। जीवन बिलकुल शांत है। तो इस शांत धार को कौन देखेगा? वे ठीक कहते हैं। जब महावीर की फिल्म को कोई देखने को राजी नहीं है तो महावीर के जीवन को कौन स्वीकार करेगा? और लोग अगर महावीर जैसा जीवन जीने लगें तो हम सब ऊब जाएंगे, बुरी तरह ऊब जाएंगे। रस उत्तेजना से है। लेकिन उत्तेजना में इतना रस क्यों है? इसे थोड़ा समझना जरूरी है। इसका अर्थ है कि हमारी संवेदनशीलता कम है, सेंसिटिविटी कम है। और संवेदनशीलता जितनी कम हो, जीवन उतना ही कम होता है। मृत्यु का नाम है संवेदनशीलता का खो जाना। तो जितनी आपकी संवेदनशीलता कम होती चली जाती है उतनी उत्तेजना की मांग बढ़ती है। और जितनी उत्तेजना की मांग बढ़ती है, वह इस बात की सूचक है, आप उतने ही मर चुके हैं। मुर्दा आदमी को आप कितनी ही उत्तेजना दें तो भी उत्तेजित नहीं होगा। कितना ही बैंड-बाजा बजाएं, कितना ही शोरगुल करें, तो भी वह चौंकेगा नहीं। उसका अर्थ यह है कि संवेदनशीलता बिलकुल ही समाप्त हो गई। मृत्यु का अर्थ है, संवेदना बिलकुल खो गई। आपको जब बहुत उत्तेजना मिलती है तब कभी आप थोड़ा सा चौंकते हैं। इसका अर्थ है कि आप भी काफी दूर तक मर चुके हैं, डेड हो गए हैं। आपके तंतु भी अब हिलते नहीं हैं साधारणतः, जब तक कि कोई झकझोर न दे। तब थोड़ा सा कंपन होता है। आपके तंतु भी सूख गए हैं। जितना ज्यादा जीवित व्यक्ति होगा उतनी कम उत्तेजना की जरूरत होगी। और जब व्यक्ति परिपूर्ण जीवित होता है, जैसा महावीर या बुद्ध, तो किसी उत्तेजना की जरूरत नहीं होती। जीवन का होना ही काफी आनंदपूर्ण होता है; उसमें फिर किसी उत्तेजना की कोई जरूरत नहीं। आखिर बुद्ध और महावीर अगर अपने वृक्षों के नीचे ऐसा दिनों बैठे रहते तो क्या आप सोचते हैं, अगर आपको बैठना पड़े तो क्या गति हो? क्या आप सोचते हैं कि बुद्ध और महावीर बड़े ऊब गए होंगे बैठे-बैठे? उनके चेहरे पर ऊब कभी नहीं देखी गई। वे जीवन में इतने रसलीन हैं, और स्वाद उनका इतना सूक्ष्म है कि हवा का थोड़ा सा कंपन भी उनके लिए काफी आनंदपूर्ण है, श्वास का थोड़ा सा चलना भी उनके लिए काफी जीवन है। होना अपने आप में इतनी बड़ी घटना है कि अब किसी और घटना की कोई जरूरत नहीं-जस्ट टु बी, सिर्फ होना। आपके लिए सिर्फ होना तो कोई अर्थ ही नहीं रखता, जब तक कि आपके होने पर कोई उपद्रव और न होता रहे। लाओत्से का कहना बहुत विचारणीय है। लाओत्से कह रहा है, 'निपट उजाला धुंधलके की तरह दिखता है।' क्योंकि हमारी आंखें लपटों की आदी हो गई हैं; मंद प्रकाश, सौम्य प्रकाश हमें धुंधलका मालूम होता है। 'महा चरित्र अपर्याप्त मालूम होता है।' क्योंकि क्षुद्र चरित्र के हम आदी हो गए हैं। और जितना क्षुद्र चरित्र हो उतना हमारी समझ में आता है। क्योंकि हमारी समझ के बिलकुल समानांतर होता है। जितना श्रेष्ठ होता चला जाए उतना ही हमारी समझ के बाहर होता जाता है। और जो हमारी समझ के बाहर है, वह हमें दिखाई भी नहीं पड़ता। श्री अरविंद को किसी ने एक बार पूछा कि आप भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में, भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे; लड़ रहे थे। फिर अचानक आप पलायनवादी कैसे हो गए कि सब छोड़ कर आप पांडिचेरी में बैठ गए आंख बंद करके? वर्ष में एक बार आप निकलते हैं दर्शन देने को। आप जैसा संघर्षशील, तेजस्वी व्यक्ति, जो 254
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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