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स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन
हैं, हवा का एक झोंका आया और आप आनंदित हुए हैं; कि सूरज को उगते आपने देखा और आपके भीतर भी कुछ उगने लगा और आप प्रफुल्लित हो उठे हैं। लेकिन क्या है उपयोग?
उपयोगिता हर चीज को काम बना देती है। तब आदमी प्रेम भी करता है तो भीतर सोचता है, गणित लगाता है: क्या है उपयोग? इससे मैं क्या पाऊंगा? इसलिए जो बुद्धिमान हैं, वे प्रेम नहीं करते; वे हिसाब रखते हैं। वे प्रेम से भी कुछ अर्थशास्त्र निकालते हैं। वे कहते हैं, किसी कुलीन घर में शादी करो, किसी धनपति के घर में शादी करो, किसी प्रतिष्ठित के घर में शादी करो; उससे भी कुछ उपयोग निकालो। प्रेम भी तुम्हारा सहज कृत्य न हो; उसका भी बाजार में मूल्य होना चाहिए। जो कुछ भी हो हमारे जीवन में, उस सब का मूल्य आंका जा सके, तो हमें मूल्यवान लगता है। लेकिन प्रेम का क्या मूल्य हो सकता है? आनंद का क्या मूल्य हो सकता है? ध्यान का क्या मूल्य हो सकता है? कोई मूल्य नहीं हो सकता। कुछ चीजें अपने आप में मूल्यवान हैं। उनकी मूल्यवत्ता आंतरिक है। किसी और कारण से वे मूल्यवान नहीं हैं; वे किसी और साध्य का साधन नहीं हैं। वे स्वयं अपना साध्य हैं।
बच्चे खेल रहे हैं। कोई मूल्य नहीं है, खेल का आनंद है। आपको लगता है समय खराब कर रहे हैं। आप खाता-बही में हिसाब लगा रहे हैं। और बच्चे खेल रहे हैं और शोरगुल कर रहे हैं, और आपको लगता है समय खराब कर रहे हैं। बड़ा कठिन है कहना। लाओत्से से पूछे तो वह कहेगा कि आप समय खराब कर रहे हैं। काश, आप भी खेल सकते! काश, आप भी इस क्षण में ऐसे लीन हो जाते कि आप फिक्र छोड़ देते कि इसका कोई मूल्य है या नहीं। मूल्य का मतलब क्या है?
मूल्य की धारणा का अर्थ यह है कि जो भी मैं कर रहा हूं, वह अपने आप में मूल्यवान नहीं है; उससे कुछ और पाया जाएगा, वह मूल्यवान है। मूल्य का अर्थ है कि लक्ष्य सदा भविष्य में है, और अभी मैं जो कर रहा हूं वह तो केवल साधनवत है। आप बाजार जा रहे हैं, दुकान पर बैठे हैं, इस सबका कोई मूल्य नहीं है; मूल्य तो उस धन में है जो इससे आएगा। फिर धन का भी क्या मूल्य है? फिर आप कहीं और मूल्य खोजेंगे; इस धन से जो मिलेगा, उसका मूल्य है। उसका भी क्या मूल्य है? अगर आप यूं खोजते हुए चलें, तो आप पाएंगे कि आप एक वर्तुल में घूम रहे हैं जहां किसी चीज का कोई मूल्य नहीं है-आगे, आगे, आगे, हर चीज को आगे टालते चले जाते हैं।
लाओत्से कहता है, टालो मत; जीवन का प्रत्येक क्षण मूल्यवान है। क्योंकि जीवन का प्रत्येक क्षण साधन ही नहीं, साध्य भी है। और तुम इस क्षण को ऐसे जीओ जैसे इसके बाहर कुछ पाने को नहीं है; जो भी पाया जा सकता है, वह इसी क्षण में है। यह निरुपयोगिता का सिद्धांत है। इसका अर्थ है, उपयोगिता की बात ही मत सोचो; सिर्फ भोग को परम बनाओ। भोग को इतना गहन बनाओ कि उपयोगिता व्यर्थ हो जाए और क्षण अपने आप में सार्थक हो जाए।
अगर लोग ध्यान भी कर रहे हैं तो भी-फर्क समझें-अगर और किसी को मानने वाला ध्यान कर रहा है तो ध्यान एक साधन है। वह कहता है, परमात्मा को पाना है। परमात्मा में है मूल्य, ध्यान तो एक साधन है। अगर कोई तरकीब उसको बता दे कि काहे इतनी मेहनत कर रहे हैं, बिना ध्यान के परमात्मा को पाने की तरकीब है! वह फौरन ध्यान छोड़ देगा। क्योंकि ध्यान केवल साधन था।
इसलिए पश्चिम में एक घटना घट रही है अभी। एल एस डी, मारिजुआना, मेस्कलीन...क्योंकि उनके प्रचारक कह रहे हैं कि क्या ध्यान कर रहे हो, यह तो पुराना ढंग है, यह काम तो एक गोली से हो जाता है। तो अगर ध्यान अपने आप में मूल्यवान है तो आप कहेंगे, रखो अपनी गोली, क्योंकि ध्यान मेरे लिए आनंद है। लेकिन अगर ध्यान परमात्मा पाने के लिए है, या कुछ और पाने के लिए है, और कोई दावा करता है कि क्या जरूरत तीन साल ध्यान में मेहनत करो, यह तो एक इंजेक्शन से, एक गोली से अभी हो जाता है, तो आप ध्यान छोड़ देंगे स्वभावतः। क्योंकि तीन साल क्यों बर्बाद करना? इसमें ज्यादा उपयोगिता है गोली में।
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