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ताओ उपनिषद भाग ४
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ऐसी सीधी बात लाओत्से के सिवाय किसी ने भी कभी कही नहीं है। शायद इसीलिए लाओत्से के आस-पास कोई संप्रदाय निर्मित नहीं हो सका। कैसे संप्रदाय निर्मित होगा? कौन संप्रदाय निर्मित करेगा ?
'इसलिए आर्य पुरुष सघनता में, नींव में बसते हैं; विरलता, अंत में नहीं ।'
इसलिए मूल पर ध्यान रखते हैं आर्य पुरुष । महावीर पर ध्यान रखेंगे; जैनियों की फिक्र छोड़ देंगे। बुद्ध पर ध्यान रखेंगे; बौद्धों पर जरा भी ध्यान न देंगे। नानक पर दृष्टि होगी; सिक्खों से क्षमा मांग लेंगे। मूल पर ध्यान रखेंगे। 'आर्य पुरुष सघनता, नींव में बसते हैं; विरलता, अंत में नहीं । '
वह जो अंत होता है धर्म का वहां सत्य नहीं है। जहां धर्म का जन्म होता है वहां सत्य है। और धर्म का जन्म और धर्म का अंत बड़ी उलटी बातें हैं। क्योंकि अंत तो सदा संप्रदाय में होता है, सदा संगठन में होता है। कोई उपाय नहीं है। बचने की कोई चेष्टा भी करे तो भी कुछ उपाय नहीं है। अंत होगा ही वहां ; यह सहज परिणति है। जैसे बच्चा जन्मता है और अंत मौत में होता है; कोई कितना ही उपाय करे मौत से बचने का कोई बच नहीं सकता। जन्मता बच्चा है; अंत बुढ़ापे में होता है। ध्यान बच्चे पर रखना है, वहां शुद्धता है।
तो महावीर बच्चे की तरह हैं। उनके आस-पास जो धर्म निर्मित होता है, वह बुढ़ापा है। और फिर बुढ़ापे के भी पार मौत है। सभी धर्म जन्मते हैं और सभी धर्म मरते हैं। समय के भीतर जो भी चीज पैदा होगी वह मरेगी भी । लेकिन महावीर तो विदा हो जाएंगे, मरा हुआ धर्म ढोया जा सकता है अनंत काल तक । और जितना मुर्दा धर्म होगा उतना ही जानलेवा होगा।
लेकिन धार्मिक मनुष्य, जितना पुराना धर्म हो उतना ही गौरव समझते हैं। वे कहते हैं, हमारा धर्म सनातन है। उसका मतलब तुम सनातन से लाश ढो रहे हो। कभी का मर चुका होगा तुम्हारा धर्म । समय में कुछ भी शाश्वत नहीं है। धर्म की चिनगारी भी जब समय की धारा में प्रविष्ट होती है तो बुझेगी। पृथ्वी पर कुछ भी शाश्वत नहीं है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म शाश्वत नहीं है। लेकिन धर्म का वह जो रूप शाश्वत है वह तो प्रकट नहीं होता। उस शाश्वत से कभी-कभी किसी व्यक्ति का संबंध हो जाता है; कोई महावीर, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण उस शाश्वत धर्म से जुड़ जाता है। उसमें झलक उतरती है। फिर महावीर और बुद्ध के द्वारा वह झलक हमारे पास पहुंचती है । फिर हम उस झलक को संगठित करते हैं। फिर हम मंदिर निर्मित करते हैं, मस्जिद बनाते हैं, शास्त्र निर्मित करते हैं। फिर हम व्यवस्था जमाते हैं। लेकिन इस सारी व्यवस्था में, वह जो मूल शाश्वत से संबंध जुड़ा था महावीर का, वह खो गया। फिर हम इस लाश को ढोते हैं। फिर यह लाश मूर्खतापूर्ण हो जाती है । फिर हमें कष्ट होता है; इसको हम छोड़ भी नहीं सकते। क्योंकि इसमें हम पैदा होते हैं, इसी लाश में हम पैदा होते हैं। जन्म से ही हमारा इसका संबंध जुड़ जाता है। फिर इसे उतारने में हमें ऐसा लगता है प्राण निकल रहे हैं। कि मेरा धर्म ! कैसे मैं छोड़ सकता हूं ! लेकिन धर्म से जिसको जुड़ना हो उसे मेरा धर्म छोड़ना ही पड़ता है। जिसे उस शाश्वत धारा से जुड़ना हो जिससे महावीर और बुद्ध जुड़ते हैं उसे महावीर और बुद्ध से संबंध छोड़ कर, महावीर और बुद्ध के आस-पास जो संप्रदाय बने हैं उनसे भी संबंध छोड़ कर सीधा ही उस धारा की तरफ उन्मुख होना होता है। तो महावीर में जो झलक को देख कर झलक, कहां से आई है उस स्रोत की खोज में चला जाए, उसने तो ठीक रास्ता पकड़ लिया । और जो महावीर में झलक को देख कर महावीर के आस-पास रुक जाए...। और अब तो महावीर हैं नहीं, बुद्ध हैं नहीं, कृष्ण हैं नहीं; उनके पंडे-पुरोहित हैं। और वे भी कई पीढ़ियां गुजर गईं, हजारों साल – उधार, उधार, उधार। अब सत्य जैसा कुछ भी बचा नहीं; सिर्फ मुर्दा असत्य उनके हाथ में रखे हैं। उनसे संबंधित हैं लोग।
मैंने सुना है, सूफियों में एक कहानी है कि जिस आदमी ने अग्नि की खोज की उसका नाम था नूर । वह परम ज्ञानी था, प्रकाशवान था, इसलिए उसको नूर नाम दिया गया। उसके आस-पास शिष्य इकट्ठे हो गए। क्योंकि बड़ी