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ताओ उपनिषद भाग ४
लेकिन जो परम है, जिससे अन्य कुछ भी नहीं हो सकता, उसकी सीमा नहीं बनाई जा सकती, उसकी कोई परिभाषा नहीं हो सकती, उसका कोई नाम भी नहीं हो सकता। ताओ कोई नाम नहीं है। ताओ का अर्थ होता है मार्ग। मंजिल का कोई नाम नहीं है, यह सिर्फ मार्ग का नाम है, उस तक पहुंचने के रास्ते का नाम है।
नदी को हम तब तक नाम देते हैं जब तक वह सागर में नहीं गिर जाती। सागर में गिरते ही नाम खो जाता है। फिर गंगा गंगा नहीं है, फिर नर्मदा नर्मदा नहीं है। और सागर में कहां खोजिएगा कि गंगा कहां है। सागर में नदियां नहीं खोजी जा सकतीं; सीमाएं खो जाती हैं तो नाम खो जाते हैं।
ताओ है परम, इसलिए लाओत्से कहता है, उसका कोई नाम नहीं है। और जो भी नाम हम देते हैं, वे सभी कामचलाऊ हैं, इशारे हैं। और जो लोग नामों को पागलों की तरह पकड़ लेते हैं, वे मुद्दा चूक गए। लोग नामों पर लड़ते हैं। परमात्मा का क्या नाम है, इस पर संघर्ष है-राम कहें? कि कृष्ण कहें? कि कुछ और कहें?
लाओत्से कहता है, उसका कोई भी नाम नहीं है। और या फिर सभी नाम उसके हैं। फिर आपका भी नाम उसी का नाम है। और या फिर कोई भी नाम उसका नहीं है।
नाम पर लाओत्से का बहुत जोर है कि हम उसे कोई नाम न दें। कई कारणों से। क्योंकि जैसे ही हम नाम देते हैं, हम उससे अलग हो जाते हैं। जिस चीज का भी हमने नाम दे दिया, हम नाम देने वाले हो गए और अलग हो गए। और जिस चीज को भी हमने नाम दे दिया, हमने उसे नाप लिया, उसकी माप पूरी हो गई। हमने उसे पहचान लिया, हमने उसे जान लिया, हमने तो उसको कैटेगराइज कर दिया, उसकी कोटि बना दी, कि यह इसका नाम है।
लाओत्से कहता है, पागलपन की बात है; न तो हम उसे नाप सकते हैं, न हम उसका कोई स्थान बता सकते कि यहां रख दें। उसकी कोई कोटि नहीं बना सकते, उसकी कोई कैटेगरी नहीं कर सकते। उसे स्त्री कहें या पुरुष कहें, उसे जीवित कहें या मृत कहें, यहां कहें या वहां कहें-सभी गलत होगा। उसके संबंध में कुछ भी हम कहेंगे तो हम उससे दूर हो जाएंगे। इसलिए लाओत्से कहता है, उसे कोई नाम मत देना। उसका कोई नाम है भी नहीं।
और अनाम के साथ जीने का नाम ध्यान है। जब आप बैठ कर राम-राम, राम-राम, राम-राम जपते हैं, तब ध्यान नहीं है। जब राम का नाम खो जाता है, जब जप करने वाला भी नहीं बचता और जप भी नहीं बचता, तब आप उसमें प्रवेश करते हैं। हमने उसे अजपा कहा है। अजपा का अर्थ ही यह है कि जब नाम खो जाता है। जब तक नाम चल रहा है तब तक तो आप विचार में ही हैं। जब तक नाम चल रहा है तब तक मन है। और जब तक नाम चल रहा है तब तक आप भी हैं, क्योंकि नाम लेने वाला। और यह भी खयाल रहे कि जो नाम देने वाला है, वह बड़ा होता है; जो नाम दे रहा है, वह जिसे नाम दे रहा है, उससे बड़ा हो गया।
लाओत्से कहता है, 'ताओ इज़ एब्सोल्यूट एंड हैज नो नेम। वह जो परम सत्य है उसका कोई भी नाम नहीं है।' इस कारण लाओत्से के मानने वाले बड़ी तकलीफ में पड़ते हैं, उनके पास जप के लिए कोई नाम नहीं है।
मेरे एक मित्र, एक लाओत्से को मानने वाले संन्यासी के साथ कुछ समय तक थे। तो जब भी वह संन्यासी ध्यान करने बैठता तो उन मित्र को बड़ी परेशानी होती कि वह भीतर करता क्या है! क्योंकि वे मित्र स्वयं जप के साधक थे। उससे वे पूछते बार-बार कि तुम क्या जप करते हो? तो वह हंसता। उसने अनेक बार उन्हें कहा कि मैं कोई भी जप नहीं करता, क्योंकि हमारे पास कोई नाम ही नहीं है। उन मित्र को भरोसा नहीं आया। वे सोचते रहे कि शायद वह अपने जप को छिपा रहा है; शायद बताना नहीं चाहता; शायद, जब तक दीक्षा न हो, तब तक वह मंत्र गैर-दीक्षित को कहा नहीं जा सकता।
वे मेरे पास आए थे। उनको मैंने कहा कि वह धोखा नहीं दे रहा था। लाओत्से के मानने वालों के पास कोई नाम नहीं है। फिर वे करते क्या हैं? वे नाम को छोड़ने की चेष्टा करते हैं। उसका तो कोई नाम नहीं है, लेकिन और